महिलाओं की तस्करी का केंद्र बनता कोलकाता
२० फ़रवरी २०१२पूर्व वाममोर्चा सरकार के दौर में ही ग्रामीण इलाकों के लोगों में गरीबी की वजह से कम उम्र में बेटियों के ब्याह की जो परंपरा शुरू हुई थी वह सरकार बदलने के बावजूद जस की तस है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की ओर से जारी ताजा आंकड़ों के बाद अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मानती हैं कि राज्य में महिलाओं की खरीद-फरोख्त का धंधा तेजी से फल-फूल रहा है. उनका आरोप है कि पूर्व सरकार ने इस पर अंकुश लगाने की दिशा में कभी कोई ठोस पहल नहीं की. ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2010 में राज्य में महिलाओं की खरीद-फरोख्त का आंकड़ा आठ हजार तक पहुंच गया. लेकिन गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक असली तादाद इससे कहीं बहुत ज्यादा है. यह आंकड़ा तो उन मामलों के आधार पर तैयार किया गया है जो पुलिस तक पहुंचे हैं. दूरदराज के देहात से तो ज्यादातर मामले पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते.
हर साल हजारों गायब
राज्य खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट और महिला तस्करों के चंगुल में पड़ने वाली एक युवती जरीना खातून की मां जहूरा बीबी की ओर से दायर एक याचिका के आधार पर कलकत्ता हाईकोर्ट ने मई, 2010 में महिला तस्करी के मुद्दे का संज्ञान लिया था. तब एडवोकेट जनरल बलाई राय ने अदालत को बताया था कि वर्ष 2009 के दौरान राज्य के विभिन्न जिलों से ढाई हजार नाबालिग युवतियां गायब हुई थीं. जरीना भी उसी साल गायब हुई थी और तबसे से आज तक उसका कोई पता नहीं चल सका है. उसके बाद के वर्षों में तमाम कोशिशों के बावजूद यह तादाद और बढ़ी है. सरकार वर्ष 2011 में गायब होने वाली युवतियों और महिलाओं का कोई आंकड़ा अब तक तैयार नहीं कर सकी है.
अब सरकार ने खुफिया विभाग में यूनाइटेड नेशन्स ऑफिस ऑफ ड्रग एंड क्राइम (यूएनओडीसी) के सहयोग से एक मानव तस्करी निरोधक शाखा का गठन किया है. इसकी एक इकाई बांग्लादेश सीमा से लगे मुर्शिदाबाद जिले में स्थापित की जाएगी. पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कहते हैं' ‘यह बहुत शर्मनाक है कि राज्य की महिलाओं व बच्चों को गरीबी के कारण दूसरे राज्यों में ले जाकर बेचा जा रहा है. राज्य में 20 फीसदी आबादी अब भी गरीबी रेखा के नीचे रहती है.' उनके मुताबिक, अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी के चलते ही ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं.
सर्वेक्षण के नतीजे
राज्य के तीन विश्वविद्यालयों-कलकत्ता, बर्दवान और उत्तर बंगाल- की ओर से हाल में हुए एक साझा सर्वेक्षण के मुताबिक, दहेज की बढ़ती मांग ने गरीब तबके के लोगों में बाल विवाह को बढा़वा दिया है. विवाह के बाद ऐसी ज्यादातर युवतियों को देह व्यापार के लिए दूसरे राज्यों में ले जा कर बेच दिया जाता है. राज्य सरकार व यूनीसेफ के सहयोग से हुए इस सर्वेक्षण में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. कलकत्ता विश्वविद्यालय की महिला अध्ययन शोध केंद्र की निदेशक डॉ. ईशिता मुखर्जी कहती हैं, ‘महिलाओं की तस्करी से जुड़े लोग गांवों में एक दूल्हे के तौर पर लोगों से संपर्क करते हैं. वे बिना दहेज के ही विवाह का प्रलोभन देते हैं. इस काम में कुछ स्थानीय महिलाएं भी कमीशन के एवज में उनकी सहायता करती हैं. वह लड़कियों के घरवालों को सब्जबाग दिखाकर उनको नाबालिग युवती को विवाह के लिए भी तैयार कर लेते हैं.' वह कहती हैं कि पश्चिम बंगाल मानव तस्करी के अंतरराष्ट्रीय रूट पर स्थित है और यहां कई घरेलू व अंतरराष्ट्रीय गिरोह इस धंधे में सक्रिय हैं. इसके अलावा पड़ोसी देशों की सीमा से सटे होने के कारण भी कोलकाता इस धंधे का सबसे बड़ा केंद्र बनता जा रहा है.
गांवों में बड़े-बूढ़े लोग मानते हैं कि अब इलाके में बाल विवाह की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. वर्ष 2001 की जनगणना व राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्टें भी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं. इनके मुताबिक, बाल विवाह का राष्ट्रीय औसत जहां 32.10 फीसदी है, वहीं विकास की राह पर तेजी से दौड़ने का दावा करने वाले इस कथित प्रगतिशील राज्य में यह आंकड़ा 39.16 फीसदी तक पहुंच गया है. डॉ. मुखर्जी कहती हैं कि गांवों में ऐसे ज्यादातर मामलों की सूचना पुलिस तक नहीं पहुंचती.
पड़ोसी देशों की भूमिका
ताजा अध्ययनों से साफ है कि राज्य में महिलाओं की बढ़ती तस्करी में पड़ोसी देशों की भी अहम भूमिका है. वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में सबसे ज्यादा आबादी वाले दस जिलों में से पांच इसी राज्य में हैं और इनमें से तीन-उत्तर व दक्षिण 24-परगना और मुर्शिदाबाद बांग्लादेश की सीमा से सटे हैं. राज्य की लगभग एक हजार किमी लंबी सीमा बांग्लादेश से सटी है. इसके जरिए गरीबी की मारी बांग्लादेशी महिलाओं को कोलकाता स्थित दक्षिण एशिया में देह व्यापार की सबसे बड़ी मंडी सोनागाछी में लाया जाता है और यहां से उनको मुंबई व पुणे जैसे शहरों के दलालों के हाथों बेच दिया जाता है. सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के एक अधिकारी कहते हैं कि सीमा पार से आने वाली महिलाओं को देख कर यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन घुसपैठिया है और किसको तस्करी के जरिए यहां लाया जा रहा है. इसी तरह नेपाल से सिलीगुड़ी कॉरीडोर से युवतियों को बेहतर नौकरियों का लालच देकर यहां लाया जाता है.
पश्चिम बंगाल पुलिस की ओर से हाल में पुणे के एक वेश्यालय से बचाई गई सुनीता प्रधान (बदला हुआ नाम) अपनी आपबीती बताते हुए कहती है, ‘मुझे मेरा एक पड़ोसी बेहतर नौकरी का लालच देकर झापा (नेपाल) से यहां ले आया था. लेकिन कोलकाता लाकर उसने मुझे एक दलाल के हाथों बेच दिया. उस दलाल ने पहले मुझे मुंबई के एक कोठे पर बेचा. बाद में वहां से पुणे के एक कोठा मालिक ने खरीद लिया.' अब पांच साल बाद उसे पुलिस बचाकर कोलकाता लाई है. फिलहाल अपने अनिश्चित भविष्य के साथ वह एक महिला सुधार गृह में अपने दिन काट रही है.
बहुआयामी उपाय जरूरी
राज्य महिला आयोग की पूर्व प्रमुख यशोधरा बागची कहती हैं, ‘इस समस्या की जड़ गरीबी ही है. कई बार गरीबी के चलते महिलाएं जानबूझ कर दलालों के जाल में फंस जाती हैं.' वह कहती हैं कि महिलाओं की तस्करी एक जटिल मुद्दा है. इसके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया जाना चाहिए. इसके लिए सरकार व गैर-सरकारी संगठनों को तो मिल कर काम करना ही होगा, ग्रामीण इलाकों के लोगों को भी भरोसे में लेना होगा. उनका सुझाव है कि ग्रामीण इलाकों में पंचायतों के पास एक रजिस्टर भी रखा जा सकता है जिसमें काम के लिए बाहर जाने वाली तमाम महिलाओं का पूरा ब्योरा दर्ज हो. इससे उन पर नजर रखने में आसानी होगी. बागची कहती हैं कि यह समस्या बहुआयामी है. इशलिए इस पर अंकुश लगाने के बहुआयामी उपाय करने होंगे.
समस्या बढ़ते देख कर पिछले साल सरकार ने महिला आयोग और पुलिस समेत छह सरकारी विभागों को साथ लेकर एक नेटवर्क बनाने का फैसला किया था ताकि इस समस्या पर काबू पाया जा सके. सरकार ने इस अभियान के लिए एक करोड़ रुपए की मंजूरी दी था. तब कहा गया था कि इसमें शामिल संगठनों के प्रतिनिधि हर दो महीने बाद एक बैठक में प्रगति की समीक्षा करेंगे. देश में अपनी किस्म के इस पहले नेटवर्क का मूल मकसद शहरों व गांवों में जागरुकता फैलाना था ताकि महिलाएं व युवतियों को मानव तस्करों के चंगुल में फंसने से बचाया जा सके. बावजूद इसके समस्या घटने की बजाय लगातार बढ़ रही है.
इस पर अंकुश लगाने में जुटे गैर-सरकारी संगठन इस बात पर एकमत हैं कि जब तक गांवों में रोजगार के साधन मुहैया नहीं कराए जाते और बचाई जाने वाली महिलाओं के लिए एक ठोस पुनर्वास पैकेज नहीं बनाया जाता तब तक इस समस्या पर काबू पाने के तमाम दावे और प्रयास खोखले ही साबित होंगे.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः आभा एम