मिस्र में सेना पर दबाव बढ़ा
२२ नवम्बर २०११इन प्रदर्शनों के दबाव में मिस्र की सैन्य प्रशासन ने कार्यवाहक सरकार का इस्तीफा स्वीकार कर लिया है. प्रदर्शनों की एक वजह लोगों की निराशा है. पिछले महीनों में सत्ता नागरिक प्रशासन को सौंपने की सेना की प्रतिबद्धता पर लोगों का संदेह बढ़ा है. राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं में यह संदेह बढ़ा है कि सैनिक शासक रोजमर्रा का कामकाज नागरिक प्रशासन को सौंप देना चाहते हैं लेकिन व्यापक अधिकार अपने पास रखना चाहते हैं.
युवा आक्रोश
मौजूदा विरोध पिछले 18 नवम्बर को सेना को राष्ट्रीय सुरक्षा में व्यापक अधिकार देने के संवैधानिक प्रस्ताव के खिलाफ इस्लाम समर्थकों के प्रदर्शन से शुरू हुआ. लेकिन पिछले दिनों में युवा कार्यकर्ताओं और एक उग्र तबके ने आंदोलन का नेतृत्व संभाल लिया है. पुलिस ने शनिवार को मुबारक विरोधी आंदोलन में मारे गए लोगों के संबंधियों को बलपूर्वक तितर बितर कर दिया था. मुबारक के शासनकाल जैसी कठोर पुलिस कार्रवाई ने लोगों का गुस्सा और बढ़ा दिया है.
मिस्र में लोकतंत्र समर्थकों को लगने लगा है कि भूतपूर्व राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के तहत काम करने वाले सेना के अधिकारियों ने उनकी क्रांति पर जबरन कब्जा कर लिया है. विरोध प्रदर्शनों में सबसे लोकप्रिय नारे सैन्य शासन विरोधी नारे हैं. इस समय मिस्र पर शासन कर रही सैन्य परिषद के प्रमुख मार्शल मोहम्मद हुसैन तंतावी हैं जो मुबारक की कैबिनेट में दो दशकों तक रक्षामंत्री रहे हैं.
मुबारक विरोधी आंदोलन की एकमात्र मांग राष्ट्रपति का इस्तीफा थी. लेकिन अब तंतावी के इस्तीफे के अलावा दूसरी मांगे भी की जा रही है. कोई रोजमर्रा का प्रशासन चलाने के लिए राष्ट्रीय सरकार की मांग कर रहा है तो कोई और लोकतंत्र की स्थापना होने तक सैन्य शासन परिषद को हटाकर उसकी जगह नागरिक राष्ट्रपति परिषद बनाने की मांग कर रहा है. बहुत से लोग राष्ट्रपति चुनाव शीघ्र कराने की मांग कर रहे हैं.
संसदीय चुनाव
लेकिन सैनिक शासकों की दिक्कत यह है कि वे मुबारक की तरह तंतावी को हटाकर या चोटी पर कुछ चेहरों को बदल कर प्रदर्शनकारियों को संतुष्ट नहीं कर सकते. होस्नी मुबारक भी सेना प्रमुख से राष्ट्रपति के पद तक पहुंचे थे. उनके लिए सवाल यह है कि क्या सेना लोगों पर छह दशक से जारी शिकंजा ढीला करेगी और 1952 में राजा का तख्तापलट किए जाने के बाद से पहली बार सत्ता नागरिक प्रशासन को सौंपेगी.
सेना, इस्लामी कट्टरपंथियों और अधिकांश राजनीतिज्ञों का कहना है कि संसदीय चुनाव समय से कराए जाने चाहिए. तीन चरणों में होने वाला चुनाव 28 नवम्बर को शुरू होगा और जनवरी तक चलेगा. लेकिन हाल की हिंसा के बाद सवाल यह है कि क्या सेना और इस बीच भरोसा खो बैठी पुलिस ऐसा चुनाव करा पाएगी जिसके नतीजों को लोग स्वीकार करें.
चुनाव के साथ सेना के साथ सत्ता संघर्ष का अंत नहीं होगा. उसी के पास कैबिनेट को नियुक्त करने जैसी कार्यकारी सत्ता रहेगी. लेकिन नई संसद के पास विधायी शक्ति होगी. वह सौ सदस्यों वाली सभा को चुनेगी जिसका काम संविधान बनाना होगा. देश की पहली चुनी हुई संस्था होने के कारण उसका नैतिक वजन होगा जिसे सेना नजरअंदाज नहीं कर पाएगी.
रिपोर्ट: रॉयटर्स/महेश झा
संपादन: एन रंजन