मुबारक मुबारक नहीं रहे
२ फ़रवरी २०११अरब देशों के बीच रह कर भी इस्राएल के प्रति सहानुभूति रखने वाले मुबारक ने जब सत्ता संभाली, तब एक तरफ राष्ट्रपति की हत्या हो चुकी थी, उन पर कातिलाना हमला हो चुका था. सेना राष्ट्रपति के खिलाफ जा चुकी थी और खुद जनता में नाराजगी फैली थी. बड़ी विचित्र बात है कि बरसों मिस्र को सिर्फ अपने कंधों पर आगे ले जाने वाले मुबारक आज जब विदा होने को राजी हो गए हैं, तब भी स्थिति वैसी ही है. जनता नाराज है और सेना काबू में नहीं. फर्क इतना कि 30 साल पहले मुबारक के सिर पर काले बाल थे, आज उन्हें रंगना पड़ता है.
सोची समझी राजनीतिः यह मुबारक की राजनीति ही थी कि अरब देशों के बीच रह कर भी उन्होंने इस्राएल से बैर नहीं लिया, जिसकी वजह से अमेरिका और पश्चिमी देशों ने कभी मिस्र की तरफ आंखें तिरछी नहीं की. खाड़ी युद्ध के वक्त मिस्र ने अमेरिका का साथ देने का जो फैसला किया, उसने न सिर्फ मुबारक को लोकप्रिय बना दिया, बल्कि मिस्र के लिए बड़ी आर्थिक सौगात लेकर आई. कहा जाता है कि मिस्र के हर सैनिक के लिए पांच लाख डॉलर का अनुदान मिला और अरबों डॉलर का विदेशी कर्ज माफ कर दिया गया.
हालांकि अरब देशों में रह कर भी खुद को अलग थलग रखने वाले मिस्र को मुबारक के राष्ट्रपति बनते ही अरब लीग से निकाल दिया गया था और 1989 में ही उसे दोबारा इंट्री मिल पाई और काहिरा को एक बार फिर लीग का मुख्यालय बनाया गया. हालांकि मुबारक ने इसकी जगह देश की आर्थिक प्रगति पर ज्यादा ध्यान देना उचित समझा.
बार बार राष्ट्रपतिः लगातार चार बार राष्ट्रपति चुने जाने के लिए मुबारक को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. शायद इसी दौरान सत्ता का दंभ उनमें समाता गया और वह भी उस रास्ते पर चल निकले, जहां से कामयाब शासक तानाशाह बनने लगता है. उन्होंने संविधान में बदलाव करते हुए चार बार राष्ट्रपति बनने की सीमा खत्म कर दी, ताकि वह पांचवीं बार भी कुर्सी पर बैठ सकें.
पायलट से राजनीतिः कभी मिस्र के सबसे कामयाब पायलट समझे जाने वाले वायु सेना के जवान हुस्नी मुबारक फाइटर प्लेन चलाते चलाते कब पूर्व राष्ट्रपति अनवर सादात की नजरों को भा गए, पता ही नहीं चला. 1975 में उन्हें वायु सेना प्रमुख से सीधे उप राष्ट्रपति बना दिया गया और इसके बाद प्रमुख विदेशी मिशनों का जिम्मा सौंप दिया गया. पूरी जिन्दगी शराब और सिगरेट से दूर रहने वाले मुबारक के हर कदम में उनका फौजी अनुशासन दिखा और वह अनवर सादात के सबसे करीबी सहयोगियों में शुमार हो गए. इस्राएल के साथ शांति समझौता करने पर जब सादात पर गोलियां बरसीं, तो मुबारक भी उनके पास ही थे, पर वह किस्मत से बच गए.
कभी आर्थिक फायदों के लिए खाड़ी युद्ध का समर्थन करने वाले मुबारक ने 2003 में इराक युद्ध का विरोध किया और पहले मध्य पूर्व संकट सुलझाने का सुझाव दिया. लेकिन इसके बाद खुद उनका राजनीतिक सफर भी उलझ कर रह गया. वह एक बार फिर राष्ट्रपति तो बने लेकिन घोर विवादों और चुनाव धांधली की खबरों के बीच. मुबारक पर विपक्षी पार्टियों के दमन और भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे और वह धीरे धीरे जनता में बेहद अलोकप्रिय होने लगे.
मुश्किल में मिस्रीः अमेरिकी मदद के बावजूद मिस्र की एक बहुत बड़ी आबादी निरक्षर है, बेरोजगारी बढ़ रही है और इंटरनेट के युग में जनता में समझ पनप रही है. उनमें विरोध की हिम्मत और ललक पैदा हो गई है. इंटरनेट की ही एक अपील पर 25 जनवरी को काहिरा में पहली बार मुबारक के खिलाफ रैली हुई, जिसके बाद एक फरवरी को दसियों लाख लोग उनके खिलाफ सड़कों पर उतर आए.
सेना नाखुशः सेना से ताल्लुक रखने वाले मुबारक की बड़ी हार तभी हो गई, जब एक फरवरी को मिलियन मार्च से ठीक पहले मिस्र की सेना ने एलान कर दिया कि वह प्रदर्शनकारियों पर बलप्रयोग नहीं करेगी. मिस्र में सेना बेहद मजबूत है और मुबारक के राष्ट्रपति बने रहने में सेना की भी बड़ी भूमिका रही है. हुस्नी मुबारक इस कदर स्वेच्छाचारी थे कि अपने बाद उन्होंने किसी को मिस्र का उप राष्ट्रपति बनाया ही नहीं. सिर्फ दो चार दिन पहले उन्होंने वाइस प्रेसिडेंट के नाम का एलान किया.
हालांकि ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति की तरह मुबारक ने पिछला दरवाजा नहीं चुना. किसी दूसरे देश में शरण लेने की जगह उन्होंने मिस्र में ही बने रहने का फैसला किया, जो उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रतीक है.
कौन बनेगा राष्ट्रपतिः मिस्र में 1952 के बाद से सैनिक बैकग्राउंड की शख्सियत भी राष्ट्रपति बनते रहे हैं. चाहे वह जमाल अब्दुल नासिर हों, अनवर सादात या फिर हुस्नी मुबारक. जनता के विद्रोह के बाद मुबारक जा रहे हैं. उनके साथ मिस्र का सैनिक इतिहास भी करवट लेगा और पहली बार कोई गैर सैनिक देश का राष्ट्रपति बनता दिख रहा है.
हालांकि मुबारक की दमनकारी नीतियों ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के लिए ज्यादा जगह नहीं छोड़ी है और मुस्लिम ब्रदरहुड सहित ज्यादातर विपक्षी पार्टियों पर नकेल कस दिया है. यहां तक कि पिछली बार जो उम्मीदवार उनके खिलाफ राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा था, उसे भी जेल जाना पड़ा.
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः उज्ज्वल भट्टाचार्य