मेघालय में लाखों बाल मजदूर
१७ दिसम्बर २००९राजधानी शिलॉन्ग मात्र 90 किलोमीटर दूर जयंतिया की ख़ूबसूरत पहाड़ियां हैं लेकिन इनके क़रीब जाते ही बाल मजदूरी की कड़ुवी सच्चाई सामने आ जाती है. यहां कई कोयला खदानें हैं और उनमें कालिख से पुते हुए हज़ारों बाल मजदूर हैं. यहां खदानों के भीतर जाने का रास्ता बेहद संकरा और उबड़ खाबड़ है. यह भी एक वजह है कि बच्चों को इसमें झोंक दिया गया है.
इम्पल्स की निदेशक हसीना खारबहीह कहती है, "कोयला निकालने के लिए यहां चार पहियों वाली छोटी सी गाड़ी का इस्तेमाल किया जाता हैं. इस गाड़ी के पहियों को बाहर से रस्सी से बांध दिया जाता है और इस पर बैठकर बच्चे तंग खानों के अंदर घुसकर कोयला निकालते लिए हैं. कोयला मेघालय की आमदनी का सबसे बड़ा माध्यम है."
मेघालय के खनन और भूगर्भशास्त्र सचिव अरिंदम सोम कहते हैं कि देश के लिए काला सोना माने जाने वाली कोयला इंडस्ट्री अभी निजी हाथों में है इसलिए सरकार का इस पर सीधा नियंत्रण नहीं है. मेघालय में 40-50 सालों से खनन का काम होता आ रहा है कोयले की खानों को किराए पर भी नहीं दिया जाता है. यहां खान के मालिक के पास सारे अधिकार होते हैं.
लेकिन निराशा की बात यह है कि इस स्थिति के बावजूद मेघालय सरकार इसमें दख़लंदाजी नहीं करती है. हसीना खारबहीह कहती हैं कि सीमा लांघकर पड़ोसी देशों से आठ से सोलह साल के बच्चों को कोयले की खानों में काम करने के लिए लाया जाता है. हालांकि इन देशों की सीमा पर चौकसी की जाती है लेकिन कोयला खदानों की तस्वीर बताती है कि यह चौकसी कितनी सजग और कड़ी है.
आरोप हैं कि सरकार इस पर कोई ध्यान नहीं देती, ख़ुद अरिंदम सोम कहते हैं, ''सीमा से आने-जाने के कई रास्ते हैं. हम इसे पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते. यहां बंधुआ मजदूरी नहीं है लेकिन बाल मजदूरी अभी भी होती है. इसके ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक करने की कोशिश की जा रही है.''
अधिकारिक आकड़ों के अनुसार दक्षिण अफ्रिका में बाल मजदूरी के शिकार क़रीब 300 करोड़ बच्चे हैं. इनमें पांच से चौदह साल के दो करोड़ बच्चे हैं. लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि दक्षिण एशिया में भी हालात कम ख़राब नहीं हैं. भारत, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों के पास बाल मजदूरी के आंकड़े ही नहीं हैं. भारत में मेघायल के हालात सरकारी दावों की खिल्ली उड़ाने के लिए काफी हैं.
रिपोर्ट: देबारती मुखर्जी/सरिता झा
संपादन: ओ सिंह