यहूदी जातिसंहार से जर्मनी को मिला सबक
२७ जनवरी २००९पोलैंड पर क़ब्ज़े के बाद जर्मन तानाशाह आडोल्फ़ हिटलर ने इस शिवर में दस लाख से भी ज़्यादा लोगों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतरवा दिया था. इसी वजह से आउश्वित्स यहूदियों के जनसंहार का प्रतीक बन गया है.
हर साल दस लाख से भी ज़्यादा लोग आउश्वित्स यातना शिविर स्मारक को देखने आते हैं. यह काफ़ी प्रभावशाली संख्या है. ये वे लोग हैं जो जो इस शिवर में सात दशक पहले रही जीवन-मरण की वीभत्सता के बारे में जानना और इतिहास से सबक सीखना चाहते हैं.
य़ातना शिवर की इमारतें इस बीच बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गई हैं. उनके पुनर्निर्माण के लिए बहुत पैसा चाहिए. जर्मनी की सरकार ने घोषणा की है कि वह इस पुनर्निर्माण में मदद देगी. यह एक महत्वपूर्ण बात है. दूसरे विश्व युद्ध के अंत के 6 दशक बाद भी सरकार और सामाज की यह ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उस दौर की याद को नहीं भुलाया न जाए.
यह है तो बहुत मुश्किल काम, क्योंकि घटनाएं पुरानी होती जा रहीं हैं और उस समय के भुग्तभोगी दुनिया से विदा होते जा रहे हैं. किताबें, संग्रहालय, फ़िल्में और टीवी डॉक्यूमेंटरी आमने-सामने की बातचीत की जगह लेते जा रहे हैं. समय के साथ करीबी ही नहीं घट रही है, उन घटनाओं के साथ लोगों का मानसिक संबंध भी कम होता जा रहा दिख रहा है. इतिहास से सबक सीखने का मतलब यह भी होता है कि आज पर नज़र रखी जाए. आज के भेदभाव, नस्लवाद और विदेशियों के प्रति नफरत के खिलाफ लड़ना भी ज़रूरी है. यहूदियों के प्रति घृणा को तो क़तई भुलाया या झुठलाया नहीं जाना चाहिए.
यह अफ़सोस की बात है कि इस्राएलियों और फ़लस्तिनियों के बीच विवाद की वजह से यहूदी मूल के लोग या विदेशों में रह रहे यहूदी नफ़रत से भरे पत्रों का लक्ष्य बन रहे हैं. ईमेल के ज़रिए उन्हे धमकियां दी जा रहीं हैं. जर्मनी में भी ऐसा होता है. दुखद बात यह भी है कि यहूदियों के प्रति जो पूर्वाग्रह हैं वे बदले नहीं हैं. मतसर्वेक्षणों से यही पता चला है. आज भी नवनाज़ीवादी सड़कों पर प्रदर्शन करते हैं और यहूदियों के जनसंहार को सही बताते हैं.
यहूदियों के जनसंहार के स्मृति दिवस पर विभिन्न समारोह भी आयोजित किए गए हैं, जो मौक़ा देते हैं इतिहास पर नज़र डालने का. इस शिक्षाप्रद याद को जीवित रखना शायद जल्द ही अखिल यूरोपीय दायित्व बन सकता है. यूरोप एक हो रहा है और शायद ऐसी घटनाओं की याद को एक सामान्य रूप देना भी अब ज़रूरी है. कई देशों में इतिहास को अब भी आलोचना की कसौटी पर परखा नहीं की जाता, अपने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया जाता. जर्मनी का सफर इस संबंध में लम्बा और कठिन था. इसलिए वह कई देशों के लिए अच्छी मिसाल भी बन सकता है.