राजनीति में महिलाएं: 98 वें नंबर पर भारत
८ मार्च २०११भारत की आबादी लगभग एक अरब 20 करोड़ है. जाहिर है लगभग आधी महिलाएं होंगी. भारतीय संसद में करीब 800 सीटें हैं. इनमें कायदे से 400 महिलाएं होतीं तो राजनीति में उनकी बराबर की साझीदारी होती. थोड़ी कम भी होतीं तो साझीदारी समझी जा सकती है. लेकिन उनकी संख्या 100 से भी कम है. कुल 10 प्रतिशत महिलाएं भी संसद में नहीं पहुंच पाती हैं.
पाकिस्तान से भी पीछे
अंतरराष्ट्रीय संस्था अंतर संसदीय यूनियन के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि राजनीति में महिलाओं को अधिकार देने के मामले में भारत विश्व का 98वें नंबर पर आता है. यह संस्था लोकतंत्र, शांति और सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम करती है. भारत में लोकसभा की 545 सीटों में 59 महिलाएं हैं, राज्यसभा की 242 सीटों में सिर्फ 25 महिलाएं.
महिलाओं को अधिकार देने के मामले भारत जॉर्डन और बेनिन जैसे देशों के साथ खड़ा है. पाकिस्तान इससे 47 स्थान ऊपर है, नेपाल 80 स्थान. पाकिस्तान की संसद के निचले सदन में 22.2 प्रतिशत महिलाएं हैं, जबकि ऊपरी सदन में 17 फीसदी. वह दुनिया में 51वें नंबर पर है, जबकि नेपाल इस रैंकिंग में 18वें नंबर पर खड़ा है. बांग्लादेश और चीन में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व संसद में भारत की तुलना से कहीं ज्यादा है. चीन 55वें नंबर पर है, बांग्लादेश 65वें नंबर पर है.
भारत से पीछे दक्षिण एशिया के सिर्फ श्रीलंका और म्यांमार जैसे देश हैं, जो इस सूची में 100 से नीचे के पायदान पर हैं.
रवांडा सबसे ऊपर
अफ्रीकी देश रवांडा इस सूची में पहले नंबर पर है, जहां संसद के निचले सदन में 56 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी है और ऊपरी सदन में 34 फीसदी की. स्वीडन 45 प्रतिशत के साथ दूसरे नंबर पर और दक्षिण अफ्रीका तीसरे स्थान पर है. नंबर चार पर क्यूबा है. इसके बाद यूरोपीय देश आइसलैंड, नीदरलैंड्स, फिनलैंड और नॉर्वे आते हैं.
महिलाओं को राजनीति में शामिल करने के मुद्दे पर जर्मनी दुनिया में 19वें नंबर पर है, जबकि अमेरिका 72वें नंबर पर. रिपोर्ट में बताया गया है कि सऊदी अरब, कतर और ओमान में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी शून्य प्रतिशत है.
15 साल से कुछ नहीं
भारत में 1996 में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश हुआ. इसमें औरतों को 33 फीसदी सीटों पर आरक्षण की बात है. लेकिन 15 साल बाद भी यह अमल में नहीं लाया जा सका है. हालांकि पिछले साल राज्यसभा ने इसे पास जरूर कर दिया लेकिन पार्टियों की अंदरूनी राजनीति की वजह से इसे लोकसभा में अभी भी नहीं रखा जा सका है. पुरुषों के दबदबे वाली पार्टियां इसे टालने के लिए आरक्षण की बात करते हैं. कोई अगड़ी पिछड़ी जाति की महिलाओं की बात करने लग जाता है तो कोई हिन्दू मुस्लिम महिलाओं की. कुल मिला कर कोई भी पार्टी दिल से इस कानून को अमल में लाने की दिशा में बढ़ती नहीं दिखती हैं.
चूंकि आज महिला दिवस है, इसलिए एक बार फिर उनके प्रति सहानूभुति जताई जा रही है. नेताओं के बयान आ रहे हैं, जिनमें उन्हें "बेचारी" बना कर पेश किया जा रहा है. यह कोई नहीं कह रहा है कि वे बेचारी नहीं हैं. यह तो उनकी वाजिब मांग या सच कहें तो जन्मसिद्ध अधिकार है. मीडिया ने भी खबरों के लिए अचानक ये आंकड़े निकाल लिए हैं. इनकी चर्चा फिर एक साल बाद ही होगी. इन पर पड़ी धूल छांटी जाएगी.
रिपोर्टः एजेंसियां/अनवर जे अशरफ
संपादनः आभा एम