रियल्टी टीवी शोः हंगामा है बरपा
२१ नवम्बर २०१०देखा जाए तो बड़े पर्दे के सितारों का काम भी आजकल टीवी के बिना नहीं चलता. बात चाहे अपनी फिल्मों के प्रचार की हो या फिर क्विज शो और रियल्टी टीवी शो के जरिए घर घर में लोकप्रिय होने की. खास कर हद से ज्यादा बिंदास होते जा रहे रियल्टी टीवी शो की वजह से अब तो सरकार के माथे पर भी बल पड़ रहे हैं.
रियल्टी शो कितने रीयल
बिग बॉस और राखी का इंसाफ जैसे कार्यक्रमों पर खास तौर से ऊंगलियां उठ रही हैं. वजह है इनमें इस्तेमाल होने वाली गाली गलौच से भरपूर भाषा और खुले आम लड़के लड़कियों का एक दूसरे को चूमना, जिसे बहुत से लोग भारतीय मूल्यों के खिलाफ बता रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता शिव भाटिया कहते हैं, "अगर आप लोगों की बात करें तो 100 फीसदी लोग इस बात से सहमत होंगे कि इस तरह के कार्यक्रमों का समय बदलने की बजाय इन पर रोक ही लगा देनी चाहिए."
वैसे भारतीय मूल्यों के विपरीत करार दिए जा रहे रियल्टी शो हमारी बुनियादी प्रवृत्ति से ही प्रेरित हैं. ऐसा मानना है मकेनिकल इंजीनियर अतुल श्रीवास्तव का. वह कहते हैं, "यह एक सामाजिक प्रवृत्ति होती है कि जरा देखें तो सही पास पड़ोस के घरों में क्या हो रहा है. रियल्टी शोज की लोकप्रियता के पीछे भी यही वजह है कि लोग आम तौर पर एक घर में झांक रहे हैं कि वहां पर लोग कैसे रह रहे हैं और उनके बीच क्या बातचीत होती है."
हंगामा है बरपा
पिछले दिनों जब राखी का इंसाफ कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली तो सरकार पर दबाव पड़ा. शो की मेजबान राखी सावंत ने शादी से जुड़े विवाद में एक व्यक्ति को नामर्द कह दिया जिसे उसके जान देने की वजह बताया जा रहा है. इसके बाद सरकार ने बिग बॉस और राखी का इंसाफ का समय बदलने के निर्देश दिए, जिसके मुताबिक इन कार्यक्रमों को रात ग्यारह बजे के बाद और सुबह पांच बजे से पहले ही दिखाया जाना चाहिए. लेकिन चैनलों ने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो अदालत ने सूचना प्रसारण मंत्रालय के निर्देशों पर रोक लगा दी.
एक व्यापक माध्यम होने के नाते टीवी का समाज पर बड़ा असर पड़ता है. यह मनोरंजन का एक असरदार माध्यम तो है ही, साथ ही आपके जीने का तरीका और सोच भी इससे बदल सकती है. लेकिन भारत में टीवी सीरियल और रियल्टी शो वाकई दर्शकों को कुछ दे पा रहे हैं, पेशे से वकील राजेश गोगोना कहते हैं, "टीवी शो और सीरियलों में जो भी कुछ परोसा जा रहा है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे देखने वालों के मानसिक स्वास्थ्य या फिर सामाजिक दर्शन को फायदा होता हो. सीरीयल जब खत्म होता है तो उससे आपको कुछ नहीं मिलता, जो अच्छी बात नहीं है."
किसका फायदा
सीरियलों में जहां सास और बहू की साजिशों को देख देख कर लोग पक चुके हैं, वहीं समाचार चैनलों को भूत प्रेत की कहानियां दिखाने से फुर्सत नहीं. साफ तौर पर इस तरह के कार्यक्रम न तो आपकी जानकारी में कोई इजाफा कर रहे हैं, और न ही आपको किसी तरह प्रेरित करते हैं. तो फिर इससे फायदा किसको हो रहा है, अतुल श्रीवास्तव कहते हैं, "फायदा है उन लोगों का, जिनके विज्ञापन इन कार्यक्रमों के बीच बीच में दिखाए जाते हैं. फायदा है इनमें हिस्सा लेने वाले लोगों का, जिन्हें लोकप्रियता मिलने के बाद अपने करियर को बेहतर बनाने में आसानी होती है."
लेकिन इस तरह के तमाम शो लोगों के देखने की वजह से ही तो लोकप्रिय होते हैं. अब ये कार्यक्रम दर्शकों की पसंद के आधार पर बनाए जा रहे हैं या फिर निर्माता करोड़ों के विज्ञापन पाने के लिए तिल ताड़ बना कर हम पर थोप रहे हैं, इस बात की तरफ कम ही लोगों का ध्यान जाता है.
रिपोर्टः अशोक कुमार
संपादनः प्रिया एसेलबोर्न