सूनामी पीड़ित इलाक़े के लिए बॉन से मदद
२४ दिसम्बर २००९पूरे इलाक़े में आई भयानक तबाही के बाद नए साल के अपने संदेश में तत्कालीन जर्मन चांसलर गेरहार्ड श्रोएडर ने इस क्षेत्र के स्कूलों, स्थानीय निकायों और शहरों के साथ जर्मनी की साझेदारी का सुझाव दिया था. इसके बाद सबसे पहले बॉन नगरपालिका ने इस दिशा में क़दम उठाए थे, और तमिलनाडु के कड्डलोर ज़िले के लिए लगभग पांच लाख यूरो इकट्ठा किए गए थे.
जर्मन ऐग्रो ऐक्शन नामक एक संगठन ने स्थानीय साझेदार संगठन लाइफ़ हेल्प सेंटर फ़ॉर हैंडिकैप्ड के साथ मिलकर मेत्तुपलयम में एक स्कूल बनाया है. सूनामी से तबाह हुए 15 गांवों के लगभग 280 बच्चे यहां पढ़ने आते हैं. पढ़ाई अंग्रेज़ी में होती है. कड्डलोर और उसके आस पास लगभग 800 लोगों की मौत हो गई थी. कड्डलोर का स्थानीय प्रशासन भी बॉन से उस समय मिली मदद की याद करता है.
लेकिन हर मदद पूरी तरह काम नहीं आई. सूनामी के कुछ ही दिनों बाद ज़िले में पुराने कपड़ों के पहाड़ लग गए थे. पैंट, टीशर्ट, स्कर्ट और अन्य कपड़े. लेकिन अपनी परंपराओं में पले बढ़े मछुआरे और उनके परिवार इन पुराने कपड़ों को पहनना नहीं चाहते थे. राहत संगठनों को अपनी कामयाबी दिखानी थी. मछुआरों को नाव और जाल दिए गए. एक ही गांव में कई कई बार. जर्मन ऐग्रो ऐक्शन कहना है कि जल्दबाज़ी में अक्सर ज़रूरतों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया.
इस क्षेत्र में अब तक काम न करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के लिए ज़रूरी है कि उनका एक स्थानीय साझेदार संगठन हो. स्थानीय संगठनों को यहां की समस्याओं की बेहतर समझ है. दूसरी बात यह है कि फ़ौरी मदद का दौर ख़त्म होने के बाद इलाके में कार्यकर्ता होने चाहिए. और तीसरी बात है नेटवर्किंग और लंबे समय के उद्देश्यों के लिए उठाए जाने वाले क़दम.
चाहे श्वेत्सिंगेन हो, लाइपज़िग, पिरना, या फिर बॉन, दर्जनों जर्मन नगर, कस्बे और संस्थान मदद के लिए आगे आए. सूनामी पीड़ित क्षेत्रों में 700 से अधिक परियोजनाएं शुरू की गईं. भारत में ऐसे क्षेत्रों में सुनामी का असर पड़ा था, जो आम तौर पर कम विकसित हैं. जर्मन ऐग्रो ऐक्शन के मुताबिक़ सूनामी की वजह से तबाही तो आई लेकिन दीर्घकालीक रूप से यह विकास को आगे बढ़ा सकता है.
सूनामी के कुछ ही दिन बाद मैंने अख़बार में सुनामी- एक सुनहरा मौका शीर्षक से एक लेख पढ़ा था, बहुत से लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, लेकिन जो बच गए, उन्हें विकास का बेहतर मौक़ा मिल सकता है. मुझे पूरा विश्वास है कि सूनामी के बिना भी इन क्षेत्रों का विकास होता और बदलाव आते, लेकिन इतनी तेज़ी से नहीं.
मिसाल के तौर पर राहत संगठनों की मदद के बिना स्कूल न बनते. यहां शिक्षा मुफ़्त है, छात्रों को भोजन दिया जाता है, स्कूल बस की व्यवस्था है. जब ये बच्चे बड़े होंगे, शिक्षा उन्हें आगे बढ़ने में, अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करेगी.