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उन्हें न गालिब चाहिए, न टैगोर, न अपना इतिहास

शिवप्रसाद जोशी
३१ जुलाई २०१७

भारत में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नामक संगठन ने स्कूली पाठ्यक्रम में भारी बदलाव की सिफारिशें केंद्र सरकार को भेजीं. सरकार कहती है कि ये बदलाव नहीं होंगे. लेकिन शिक्षा के भगवाकरण के अदृश्य अभियानों पर उठते हैं सवाल.

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Indien Klassen einer öffentlichen Schule in Dehradun
तस्वीर: DW/Shiv Joshi

जबसे केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली प्रचंड बहुमत की सरकार आयी है तब से अक्सर सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक स्तर पर कोई विवाद या टकराव सामने आ रहा है. वर्तमान पर कथित आधिपत्य के बाद संघ की सत्ता राजनीति अतीत को भी अपनी विचारधारा के मुताबिक ढालने के दुस्साहस की ओर खींची जा रही है. इसलिए न सिर्फ ऐतिहासिक प्रतीकों बल्कि घटनाओं, विवरणों और शख्सियतों को भी पसंद के हिसाब से चुना जा रहा है - उनमें काट छांट की जा रही है. देश में स्कूली शिक्षा प्रबंधन की केंद्रीय संस्था, एनसीईआरटी ने विषयवार सुझाव मांगे हैं कि किताबों में नई और आवश्यक तब्दीलियां क्या हो सकती हैं. इस पर संघ से जुड़े संगठन और नेता फौरन हरकत में आ गये.

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नामक संगठन ने स्कूली किताबों में आमूलचूल बदलाव की सिफारिशें भेजी हैं. पांच पेज की इन सिफारिशों का लब्बोलुआब ये है कि भारत का इतिहास, हिंदुओं का इतिहास है. और जो हिंदू नहीं है या हिंदू धर्म को लेकर कट्टर नहीं है, वो इस इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकता है. सिफारिशों का आलम ये है कि मिर्जा गालिब और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों से जुड़े पाठ भी हटा देने को कहा गया है. इस तरह सवा करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले भारत में 85 फीसदी हिंदू होने के बावजूद अपने धर्म के वर्चस्व की ऐसी भीषण कामना बनी हुई है. शिक्षा से लेकर समाज तक जो भी बदलाव मांगे जा रहे हैं वे बहुसंख्यक कट्टरपंथ की स्थापना में लगने वाली ईंटे हैं.

दिक्कत ये है कि भारत अपने मूल स्वभाव, भूगोल, संस्कृति या विचार में ऐसी कोई बहुसंख्यक-प्रेरित इकाई कभी नहीं रहा है. गणराज्यों, साम्राज्यों, सल्तनतों और अलग अलग हिस्सों में जनजीवन और जनसंघर्षों के उसके अनुभव और उसके निशान बिखरी हुई अनेकता दिखाते हैं. यहां तक कि "हिंदू” शब्द भी राष्ट्रवादी कट्टरता के दायरे में नहीं अंटता. वो भी बाहर से आया है. बहरहाल, संघ से जुड़े न्यास ने एनसीईआरटी को जो सुझाव दिए हैं उनमें कहा गया है कि किताबों में अंग्रेजी, अरबी या ऊर्दू के शब्द न हों, खालिस्तानी चरमपंथियों की गोलियों का शिकार बने विख्यात पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की कविता न हो, गालिब की रचना या टैगोर के विचार न हों, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश हटाएं जाएं, राम मंदिर विवाद और बीजेपी की हिंदूवादी राजनीति का उल्लेख न हो, गुजरात दंगों का विवरण हटाया जाए. आदि आदि. सिफारिशों के मुताबिक सामग्री को अधिक "प्रेरक” बनाना चाहिए.

शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे वीर नायकों की कथाएं यूं किताबों में पहले से हैं लेकिन संघ से जुड़े लोग चाहते हैं कि इन योद्धाओं की मुगलों के खिलाफ भूमिका को राष्ट्रनायक के नजरिये से रखना चाहिए. महाराणा प्रताप को अकबर के खिलाफ राष्ट्रनायक दिखाने की तो इधर एक मुहिम सी चल पड़ी है. राजस्थान में स्कूली किताबों से लेकर इतिहास के विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में यहां तक बदलाव की मांग हो चुकी है कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर नहीं बल्कि महाराणा प्रताप की विजय हुई थी.

अपने अनुरूप इतिहास को गढ़ने या ऐतिहासिक तथ्यों में फेरबदल की ये कोशिश, लौह दीवार वाले उस स्टालिनवादी सोवियत दौर की याद दिलाती है जहां इतिहास और नायकों का पुनर्लेखन अपनी सुविधा और अपने एजेंडे के साथ किया गया था. भारत में ज्ञात इतिहास के एक बड़े हिस्से पर जानबूझकर पर्दा डाला जा रहा है. हालांकि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री का पिछले दिनों ये बयान था कि ऐसा कोई बदलाव नहीं होगा जिससे विरासत का नुकसान हो.

लेकिन ऐसे आश्वासन तब निस्तेज और अर्थहीन नजर आते हैं जब हम देखते हैं कि संघ से जुड़े इसी न्यास की एक उग्र मुहिम के चलते विख्यात चिंतक एके रामानुजन के रामायण पर केंद्रित दस्तावेजी निबंध को दिल्ली विश्वविद्यालय के अंडरग्रेजुएट सिलेबस से हटाना पड़ा था. इसी तरह ख्यातिप्राप्त लेखिका और भारतविद् वेंडी डोनिंगर की किताब 'द हिंदूज' के प्रकाशन और बिक्री पर रोक लगाने की मांग की गयी थी. जिसके बाद प्रकाशक पेंग्विन इंडिया ने किताब को सर्कुलेशन से हटा दिया था. ये बात अलग है कि आज ये किताब सब जगह उपलब्ध है, और ऑनलाइन पीडीएफ फाइल के रूप में पढ़ी और सराही जा रही है.

बात केवल इसी सरकार या इन्हीं हिंदूवादी कट्टरपंथियों की नहीं है. तस्लीमा नसरीन, पेरुमल मुरुगन और सलमान रुश्दी जैसे महत्वपूर्ण लेखकों तक को प्रतिबंध और गालियां सहनी पड़ी हैं. प्रेमचंद जैसे जनमानस में रचे बसे लेखक की "दूध का दाम” कहानी को करीब दस साल पहले उत्तराखंड में सिर्फ इसलिए पाठ्यक्रम से हटाया गया क्योंकि उसमें कुछ जातिसूचक शब्दों पर एक समुदाय के कुछ लोगों को आपत्ति थी. देश के विभिन्न इलाकों में और भी उदाहरण हैं जहां सरकारें राजनैतिक दबाव के आगे झुकी हैं और जहां पाठ्यक्रम बदले गए हैं और लेखकों का अपमान हुआ है.

आज ये दबाव और अपनी पसंद को थोपने की ऐसी मानसिकता, उग्र होकर फैल चुकी है. सत्ता विस्तार के चलते हिंदूवादी आग्रहों का बोलबाला है और ऐसे में भगवाकरण का ये अभियान कहीं खामोशी, कहीं शोर तो कहीं आंदोलन के जरिये जारी है. हिंदूवादी नेता अक्सर डंके की चोट पर शिक्षा ही नहीं देश के भगवाकरण की बात कहते हैं. उनके मुताबिक, सम्मान और स्वाभिमान के लिए ऐसा किया जा रहा है. इतिहास के तथ्यों को बदलकर और अपने विचार से मेल न खाते विचारों को हटाकर, भला कैसा सम्मान! ये तो साझा स्मृति को तोड़ना हुआ. आखिरकार कोई कितना भी शोर मचाये लेकिन ये वास्तविकता नहीं बदलेगी कि भारत की इकहरी पहचान कभी नहीं रही है.