हिग्स-बोसोन की रेस
२४ अगस्त २००९संसार का वही सबसे बड़ा और मंहगा त्वरक है, जिसके बारे में अफ़वाह थी कि वह एक दिन पृथ्वी पर ऐसा कृष्ण विवर (ब्लैक होल) पैदा कर सकता है, जो सारी पृथ्वी को ही निगल जायेगा. लेकिन, 10 दिसंबर 2008 को प्रायोगिक तौर पर पहली बार चालू करने के नौ ही दिन बाद उसे बंद कर देना पड़ा. उसे लगभग परम शून्य पर ठंडा रखने वाले तरल हीलियम के रिसाव से उसके दो बड़े चुंबकों को भारी नुकसान पहुंचा था. लार्ज हैड्रन कोलाइडर कहलाने वाले इस त्वरक को पुनः चालू करने में विलंब से सेर्न के महानिदेशक जर्मनी के रोल्फ़ डीटर होयर भी कुछ कम दुखी नहीं हैं: "यह महात्वरक अपने ढंग का एकलौता है. शुरू- शुरू में इतना बढ़िया चला कि सभी लोग बहुत खुश थे. ऐसे में यदि कुछ बिगड़ जाता है, तो आप चारो खाने चित्त हो जाते हैं, हालांकि यह कोई अनहोनी बात नहीं है."
अनहोनी बात तो तब हो जायेगी, जब सेर्न की प्रतियोगी अमेरिका की फ़र्मी लैब के वैज्ञानिक सेर्न से पहले ही ब्रह्मकण कहलाने वाले हिग्स-बोसोन का खंडन या मंडन कर देंगे. हिग्स-बोसोन को प्रमाणित करने वाले प्रयोग के निदेशक योआख़िम म्निश भी स्वीकार करते हैं कि इस समय इस प्रमाण को पाने की दौड़ चल रही है और हो सकता है कि शिकागो के पास की फ़र्मी लैब के वैज्ञानिक बाज़ी मार ले जायें.
सेर्न का महात्वरक पिछड़ रहा है
सेर्न का महात्वरक यदि नवंबर से पुनः चालू हो भी जाता है, तब भी उसे अपनी पूरी क्षमता प्राप्त करने में 2011 तक का समय लग सकता है. फ़र्मी लैब का त्वरक टेवाट्रॉन यद्यपि सेर्न के एलएचसी जितना शक्तिशाली नहीं है, तब भी इस समय वही एकमात्र ऐसा बड़ा त्वरक है, जो चालू है और जिस के साथ 600 वैज्ञानिक हिग्स बोसोन ब्रह्मकणों को प्रमाणित करने में जुटे हुए हैं. मज़े की बात यह है कि टेवाट्रॉन को 2011 तक बंद कर दिया जाना है. लेकिन अब वहां के वैज्ञानिक चहक रहे हैं: "मेरा नाम माइकल कर्बी है... इस समय हिग्स-बोसोन की खोज पर काम कर रहा हूं. मूलकण विज्ञान में यही इस समय का सबसे रोचक विषय है. यह एक चुनौती है, जिसका हम क़रीब 40 वर्षों से, यानी तब से उत्तर खोज रहे हैं, जब पीटर हिग्स ने परिकल्पना की थी कि वे ही परमाणु के मूलकणों को मास, अर्थात द्रव्यमान प्रदान करते हैं."
मूलकण क्या हैं
क्वांटम भौतिकी में मूलकण कहते हैं ऊर्जा के एक ऐसे अकेले अतिसूक्ष्म बिंदु को, जिस का, जहां तक हमें पता है, और कोई घटक या और कोई टुकड़ा नहीं होता. उसे और अधिक खंडित नहीं किया जा सकता. हिग्स-बोसोन परमाणु-संघटक तत्वों को भार प्रदान करने वाले ऊर्जा के उस रहस्यमय रूप को कहते हैं, जिसकी अभी पुष्टि नहीं हो सकी है. वे ठीक उस क्षण में बने होंगे, जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी. हीलियम के प्रोटोन कणों को लगभग प्रकाश जैसी तेज़ गति से आपस में टकरा कर एक बिंदुरूप में उसी क्षण को दुबारा पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है.
माइकल कर्बी बताते हैं कि उन्हें अमेरिका की फ़र्मी लैब वाले त्वरक टेवाट्रोन के तथाकथित डी ज़ीरो प्रयोग के दौरान पिछले सात वर्षों के प्रोटोन कणों की टक्करों वाले रिकार्ड देखने होंगे और ऐसी ख़ास टक्करों को छांटना होगा, जिनमें हिग्स-बोसोन बने होने के निशान मिल सकते हैं. वे कहते हैं,"यदि हम पूरी सावधानी से विश्लेषण कर सके, तो हिग्स- बोसोन बनने वाली घटनाओं के निशान पहचान कर उनके संकेतों को प्रोटोन टक्कर की अन्य घटनाओं वाली पृष्ठभूमि से अलग कर सकते हैं. यदि हम संकेतों को पृष्ठभूमि से अलग कर सके, तो यह कहने की आशा कर सकते हैं कि हमने हिग्स-बोसोन को पा लिया है और जान गये हैं कि वही परमाणु के मूलकणों को उनका द्रव्यमान देता है."
हिग्स-बोसोन का महत्व
हिग्स-बोसोन की खोज वास्तव में इस प्रश्न के उत्तर की खोज है कि परमाणु में निहित इलेक्ट्रॉन, उस के प्रोटोनों का निर्माण करने वाले दो अप क्वार्क और एक डाउन क्वार्क, उसके न्यूट्रोनों का निर्माण करने वाले दो डाउन क्वार्क और एक अप क्वार्क और न्यूट्रॉन के बिखरने से बनने वाले न्यूट्रीनो का जो अलग अलग द्रव्यमान है, यानी उनका जो अलग अलग भार है, वह उन्हें कहां से मिलता है.
एक ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स ने 1964 में यह परिकल्पना दी कि परमाणु के इन आठ संघटक मूलकणों को उनका भार एक विशेष बलक्षेत्र से मिलता है. इस बलक्षेत्र को बाद में हिग्स फ़ील्ड कहा जाने लगा. परमाणु विज्ञान के तथाकथित स्टैंडर्ड मॉडल के अनुसार हिग्स फ़ील्ड के भी विद्युत आवेशधारी और आवेशहीन भाग होते हैं. उन्हें भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस के नाम पर बोसोन नाम दिया गया. सत्येद्रनाथ बोस ने परमशून्य तापमान पर पदार्थ की एक पांचवीं अवस्था की भी कल्पना की थी, जिसे बोस आइनश्टाइन कंडेनसेट कहा जाता है.
द्वैत अद्वैत है, पदार्थ और ऊर्जा एक ही है
अब वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हम एक कणिका जगत में रहते हैं. जो कुछ हम देखते हैं-- या नहीं देख पाते-- वह सब इन्हीं मूलकणों के बीच असंख्य जोड़तोड़ का परिणाम है. प्रकृति उनके माध्यम से हमें यही बताती है कि ऊर्जा और पदार्थ एक ही चीज़ है. जिसे हम द्वैत यानी दोरूपीय देखते-मानते हैं, वह सब वास्तव में अद्वैत यानी एकरूपीय है. क्या यही बातें भारत का वैदिक तत्वदर्शन भी नहीं कहता!
प्रकृति ऊर्जा का कभी क्षय नहीं होने देती. ऊर्जा से ही वह पदार्थ बनाती है. ब्रह्मांड में आज जो कुछ हमें पदार्थ-रूप में दिखायी पड़ता है,वह कोई 14 अरब वर्ष पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति वाले महाधमाके से पहले एक बिंदु में मात्र ऊर्जा के रूप में संचित था. सेर्न और फ़र्मी लैब जैसी प्रयोगशालाओं में हिग्स- बोसोन की खोज के नाम पर एक बहुत सीमित पैमाने पर उन्हीं परिस्थितियों को पैदा करने का प्रयास हो रहा है. यूरोप की परमाणु भौतिकी प्रयोगशाला सेर्न के महानिदेशक रोल्फ़ डीटर होयर कहते हैं
"मेरा मानना है कि हिग्स का अस्तित्व है. मैं जानता नहीं कि ऐसा है यै नहीं. जानूंगा तब, जब वह मिल जायेगा. यह ज़रूर जानता हूँ कि ऐसा कुछ ज़रूर होना चाहिये, जो हिग्स जैसा असर पैदा करता है, क्योंकि इसका कोई कारण होना चाहिये कि मूलकणों के पास अपना भार क्यों होता है."
देखना है कि इसे सिद्ध करने की बाज़ी कौन मारता है, यूरोप या अमेरिका?
रिपोर्ट- राम यादव
संपादन- उज्ज्वल भट्टाचार्य