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हिटलर आया 75 साल पहले सत्ता में

३० जनवरी २००८

जर्मनी में हिटलर के सत्ता में आने की 75वीं वर्षगाँठ पर डॉयचे वेले के समीक्षक फ़ेलिक्स श्टाइनर का कहना है कि इस घटना की सीख यह है कि लोकतंत्र पर सवाल उठाने वालों का विरोध होना चाहिए.

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30 जनवरी 1933 को बर्लिन में हिटलर के समर्थन में प्रदर्शन
30 जनवरी 1933 को बर्लिन में हिटलर के समर्थन में प्रदर्शनतस्वीर: HO

पाँच करोड़ की हत्या या मौत, यूरोप के यहूदियों को औद्योगिक हत्या मशीन के ज़रिए नष्ट कर दिया गया और अंत में सारा यूरोप राख और मलबे में था. ये है दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर का कारनामा जिसे 30 जनवरी 1933 में जर्मनी का राइष चांसलर मनोनीत किया गया था.

माख्तएरग्राइफ़ुंग - सत्ता पर कब्ज़ा, ये हक़ीक़त को छुपाने वाला ऐसा शब्द है जिसमें नाज़ी प्रोपेगैंडा आज भी जीवित है. यह संकेत देता लगता है कि जनवरी 1933 में हिटलर जर्मनों के बढ़ते समर्थन से सत्ता के शीर्ष पर पहुँचा. 1945 के बाद इस शब्द ने एक नया, सफ़ाई देने वाला आयाम ले लिया. क्योंकि इस शब्द से लगता है कि 75 साल पहले हिटलर ने सत्ता पर कब्ज़ा किया था और जर्मन उसके सामने असहाय थे.

दोनों बातें ग़लत हैं. आडोल्फ़ हिटलर को 30 जनवरी 1933 को संवैधानिक तरीक़े से राइष चांसलर मनोनीत किया गया था. इस लिहाज़ से सत्ता का हस्तांतरण सही शब्द होगा. हिटलर जर्मन संसद राइषटाग में सबसे बड़े दल का नेता था. लेकिन 1932 में हुए चार चुनावों में से किसी में भी उसकी पार्टी को 40 प्रतिशत से अधिक जर्मनों ने नहीं चुना था. नवम्बर में मतों की संख्या घटकर 33 प्रतिशत रह गई थी. समर्थन की लहर चढ़ी नहीं थी बल्कि ढ़लान पर थी.

अक्सर यह सवाल पूछा गया है कि ऐसा कैसे हुआ? कैसे बिना किसी प्रशासनिक अनुभव वाला एक 43 वर्षीय अप्रशिक्षित सनकी वैध तरीक़े से जर्मनी के सर्वोच्च सरकारी पद पर पहुँच गया? कैसे एक ऐसा आदमी, जिसने अपने आपराधिक लक्ष्यों को क़िताब की शक्‍ल में सार्वजनिक कर रखा था, यहूदियों की हत्या के अलावा पूरब के इलाक़ों पर हमले के लक्ष्य को भी, कैसे ऐसा आदमी अपने को कवियों और दार्शनिकों की जनता समझनेवाली जनता के शीर्ष पर चला गया? प्रथम विश्‍वयुद्ध में जर्मनी की हार, विश्‍व आर्थिक संकट, जिसमें हर तीसरे की नौकरी चली गई थी और हिटलर के आतंक की, जिसने 1933 से पहले ही लाखों लोगों वाली पार्टी की सेना एसए बना ली थी, इसमें क्या भूमिका थी?

इतना तय है. 75 साल पहले हिटलर को सत्ता में आने में मदद देनेवाले अनुदारवादी संभ्रांत वर्ग ने भारी भूल की थी. हिटलर का जादू समाप्त करने की उनकी अवधारणा ग़लत साबित हुई. साथ ही हिटलर को नहीं चुनने वाले 60 प्रतिशत जर्मनों की यह उम्मीद भी, कि अपने दो पूर्वगामियों की तरह यह चांसलर भी ज़्यादा दिनों तक पद पर नहीं टिकेगा.

लेकिन सत्ता में आने के बाद वह अंत तक सत्ता में बना रहा. कुछ ही महीनों में उसने आतंक आधारित तानाशाही क़ायम कर ली. फ़रवरी में अभिव्यक्ति और सभा की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई. मार्च में संसद की सत्ता समाप्त की गई, अप्रैल में प्रांतीय सरकारों की, मई में स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों को भंग कर दिया गया, और जुलाई में हिटलर की एनएसडीएपी पार्टी को छोड़ कर सभी पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

अप्रैल में यहूदी दुकानों का पहला वहिष्कार शुरू हुआ, यहूदी डॉक्टरों, वक़ीलों, पत्रकारों, शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों के काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया. इतना ही नहीं पहला यातना शिविर भी 1933 के वसंत में बनाया गया.

यह सब कुछ ही महीनों के भीतर हुआ. और उसके ख़िलाफ़ किसी रूप में विरोध संगठित नहीं हुआ. हिटलर शासन के लिए जर्मनों में समर्थन वैसे वैसे बढ़ता गया जैसे जैसे बेरोज़गारी घटी. जर्मनों का असल कसूर यह है कि उन्होंने कथित आर्थिक व राजनीतिक स्थिरता के लिए नागरिक अधिकारों की क्षति को स्वीकार किया और पूरे के पूरे के समुदाय के अधिकारों को व्यवस्थित रूप से समाप्त किए जाने को हाथ पर हाथ धरे देखते रहे. वे अपनी ताक़त से हिटलर से मुक्त होने की हालत में नहीं थे.

75 साल पहले की घटना का क्या सबक है? दो बातें- पहली कि लोकतंत्र को लोकतंत्रवादियों की ज़रूरत होती है. और दूसरे लोकतंत्र को रक्षा-सम्पन्न होना चाहिए. लोकतंत्रवादियों का ख़ूबी सहिष्णुता है, लेकिन लोकतंत्र पर सवाल उठानेवालों को पता होना चाहिए कि उन्हें विरोध का सामना करना होगा.