हिमालय की गोद में छिपी एक भाषा
६ अक्टूबर २०१०अमेरिका के ओरेगोन के लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट के ग्रेगोरी ऐंडरसन, पेनसिलवेनिया के स्वार्थमोर कॉलेज के डेविड हैरिसन और रांची विश्वविद्यालय के गणेश मुर्मू ने नेशनल जियोग्राफिक पत्रिका के समर्थन से यह खोज शुरू की थी. अरुणाचल प्रदेश में भूटान और चीन से जुड़े क्षेत्र में इस खोज के लिए उन्हें भारत सरकार की ओर से विशेष अनुमति मिली थी.
अब उन्होंने सूचित किया है कि इस भाषा का नाम कोरो है और यह उसी भाषा परिवार की है, जिसमें तिब्बती और बर्मी भाषा भी शामिल हैं. कुल मिलाकर 800 लोग बचे हैं, जो इस भाषा को बोल सकते हैं, और इनमें से अधिकतर लोगों की उम्र काफी अधिक हो चुकी है.
हिमालय की घाटी में इस क्षेत्र के लोग आम तौर पर आका और मिजी नामक दो भाषाएं बोलते हैं, लेकिन इन भाषाशास्त्रियों को कुछ अपरिचित शब्दों का पता चला. जब उनके बारे में खोज की गई, तो कोरो नामक इस भाषा का पता लगा. मिसाल के तौर पर सू्अर को आका भाषा में वो कहते हैं, लेकिन उन्हें लेले शब्द भी मिला. यह कोरो भाषा का शब्द था.
नेशनल जियोग्राफिक की पुस्तक द लास्ट स्पीकर्स में हैरिसन कहते हैं कि दोनों भाषाओं के शब्द सुनने में उतने ही अलग लगते हैं, जितने कि अंग्रेजी और जापानी भाषा के शब्द. साथ ही उन्होंने कहा है कि इस भाषा का एक निश्चित व्याकरण तो है. लेकिन कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं है.
ग्रेगोरी हैरिसन कई सालों से विलुप्त होती भाषाओं पर काम कर रहे हैं. उनका कहना है कि विश्व में हर दो हफ्ते में एक भाषा मिट रही है. भाषाओं की संख्या के बारे में वे कहते हैं कि भाषाशास्त्रियों की तालिका में कोरो सारी दुनिया की 6,909 भाषाओं में से एक है.
रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ
संपादन: एस गौड़