अपमान से बचने के लिए तलाक
१० जनवरी २०१३बढ़ते रोजगार और महिला अधिकारों की बढ़ती समझ की वजह से तलाक के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन अभी भी तलाक की हिम्मेत दिखाने वाली महिलाओं की तादाद कम है. पाकिस्तान में धार्मिक दक्षिणपंथ बहुत ताकतवर है और इस्लामी कट्टरपंथ भी बढ़ रहा है. ऐसे में महिला अधिकारों की वकालत करने वालों की संख्या कम है.
अकसर पति से अलग होने की कोशिश करने वाली महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है. कुछ को तो कोर्ट से घर लौटते समय या उनके वकीलों के सामने ही मार डाला जाता है. राजधानी इस्लामाबाद में 17 लाख लोग रहते हैं. वहां 2011 में 557 जोड़ों ने तलाक लिया. 2002 में यह संख्या सिर्फ 208 थी. यह आंकड़े इस्लामाबाद सुलह परिषद के हैं. पाकिस्तान सरकार तलाक का राष्ट्रीय स्तर पर कोई रिकॉर्ड नहीं रखती.
शादी में धोखा देने वाले पति से तलाक लेने वाली 26 वर्षीया राबिया कहती हैं, "यदि आप कमा रही हैं, तो आप पति से सिर्फ प्यार और स्नेह चाहती हैं. अगर वह शख्स यह भी देने की हालत में न हो, तो आप उसे छोड़ देती हैं." राबिया जैसी औरतों की संख्या कम होने के बावजूद पाकिस्तान की अनुदारवादी ताकतें उन्हें खतरा मानती हैं. तालिबान के प्रवक्ता एहसानुल्लाह एहसान ने रॉयटर्स से कहा, "महिलाओं को तथाकथित आजादी और स्वछंदता दी गई है, जो उन्हें ही खतरा पहुंचाता है."
महिला अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही पाकिस्तानी संस्था औरत फाउंडेशन के अनुसार पिछले साल पाकिस्तान में सम्मान के नाम पर 1,636 हत्याएं हुई हैं. सिर्फ यह समझना कि औरत ने ऐसा बर्ताव किया है जो उसके परिवार का अनादर है, हमले के लिए काफी है. प्रसिद्ध पश्तून गायिका गजाला जावेद भी पिछले जून में इसका शिकार बनीं. उन्होंने तालिबान की धमकियों से भागकर शादी की. उसके बाद उन्हें पता चला कि उनके पति की पहले से ही एक पत्नी है. जब उन्होंने तलाक की मांग की तो उन्हें और उनके पिता को गोली मार दी गई.
पश्चिमी देशों में महिलाओं के लिए तलाक आम बात है, लेकिन 20वीं सदी में विकासशील देशों में भी उनकी संख्या बढ़ी है. जबकि पाकिस्तान में यह नई बात है. मुस्लिम पारिवारिक अदालतों में तलाक के मामलों को छह महीने के अंदर निपटाया जाना जरूरी है. सिविल अदालतों में फैसला होने में सालों लग जाते हैं, जिसकी वजह से पाकिस्तान के दसियों हजारों गैर मुसलमान महिलाओं के लिए यह और भी मुश्किल है.
कारोबारी शहर कराची के वकील जीशान शरीफ बताते हैं कि इन दिनों हर हफ्ते उनके पास तलाक के कई मामले आते हैं जबकि 10 साल पहले शायद ही कोई मामला आता था. तलाक चाहने वाली महिलाएं आम तौर पर उच्च या मध्य वर्ग की होती हैं. वकालत की फीस कम से कम 300 डॉलर है जो देश के 18 करोड़ लोगों में ज्यादातर की साल भर की कमाई के बराबर है. गरीब परिवारों की महिलाओं के लिए वकील की फीस जुटा पाना नामुमकिन है.
गिलानी फाउंडेशन के एक सर्वे के अनुसार बहुत से पाकिस्तानी मानते हैं कि तलाक के बढ़ते मामले महिलाओं की बढ़ती वित्तीय आजादी का नतीजा हैं. सांख्यिकी दफ्तर के अनुसार पिछले दशक में पाकिस्तान में कामकाजी महिलाओं की संख्या 57 लाख से बढ़कर करीब 121 लाख हो गई है. जमाते इस्लामी पार्टी की सीनियर सदस्य मुसफिरा जमाल कहती हैं, "महिलाएं अब कमा रही हैं और सोचती हैं कि यदि उनके अधिकार हैं तो उन्हें कुर्बानी देने की जरूरत नहीं है." वे कहती हैं, "अल्लाह तलाक को पसंद नहीं करता. लेकिन उसने मर्दों को अपनी बीवी को पीटने या परिवार को सताने का हक नहीं दिया है."
पिछले साल मौलवियों और एक धार्मिक पार्टी ने घरेलू हिंसा पर रोक लगाने वाले कानून पर फिर से विचार की मांग की थी. उनका कहना था कि यह परिवार के मूल्यों को खतरा पहुंचाता है. तालिबान के प्रवक्ता एहसान का कहना है कि दुर्व्यवहार नहीं बल्कि पश्चिमी संस्कृति की वजह से महिलाएं तलाक चाहती हैं. लेकिन वकील आलिया मलिक कहती हैं कि घरेलू हिंसा तलाकों की सबसे बड़ी वजह है. 2011 में हुए एक सर्वे के अनुसार करीब 90 फीसदी पाकिस्तानी महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो चुकी हैं.
तलाक का फैसला बहुत मुश्किल होता है. तलाक मांगना तकलीफदेह होता है, तलाक पाना पीड़ादायक. भारतीय उपमहाद्वीप पर महिलाओं को तलाक मांगने का अधिकार पहली बार 1930 के दशक में मिला. 1961 में बने कानून के तहत पति के गलती करने पर पत्नी सिविल अदालतों में तलाक मांग सकती थी, लेकिन फैसले में सालों लगते थे. मानवाधिकार वकील हिना गिलानी कहती हैं कि सबसे बड़ी बाधा डर है. उनकी एक मुवक्किल को उसकी मां ने उनके सामने ही गोली मार दी.
कलंक, हिंसा का डर और कानून का जंगल लोगों को तलाक चाहने से रोकता है. 29 वर्षीय टेलीविजन अधिकारी सादिया जब्बार अपने धोखेबाज पति को छोड़ने के बाद अपराध बोध और विफलता की भावना से जूझती रहीं, "यह सचमुच बहुत बुरा अहसास था, जैसे कि मैं अपनी जिंदगी के सबसे बड़े फैसले में चूक गई थी." सामाजिक कलंक का मतलब यह भी होता है कि तलाकशुदा महिलाओं को फिर से शादी में मुश्किल होती है. बहुत सी महिलाएं अकेले रहने के बदले तकलीफ वाली शादी में रहने का फैसला करती हैं. बच्चे हों तो मुश्किल और भी बढ़ जाती है. अदालतें तलाकशुदा मांओं को बच्चे के लिए भत्ता देने का फैसला शायद ही सुनाती हैं.
लाहौर में रहने वाली दो बच्चों की मां फातिमा को सात साल तक पति की मार सहनी पड़ी. उसके बाद उन्होंने तलाक ले ली. "वह मुझे पीटता था, धक्के देता था, मेरे बाल खींचता था. जब मेरी रीढ़ की हड्डी टूटी, तो उसने मुझे मारा जबकि मैं गर्भवती थी."
तलाक तो मिल गया लेकिन पति ने बच्चों के लिए पैसा देने से मना कर दिया. बच्चों की फीस चुका सकने के लिए उसने अपने पति से फिर से शादी कर ली. अब वह बंद कमरे में सोती है. "मैं अपने बच्चों को अकेला नहीं छोड़ सकती. वे बहुत छोटे हैं. यदि मैं उन्हें पाल पोस सकती तो मैं पहले ही चली गई होती."
एमजे/एजेए (रॉयटर्स)