अफगानिस्तान में जिंदा होती रूस की दिलचस्पी
२२ अगस्त २०११कभी अफगानिस्तान और रूस खूब तनातनी रहती थी. लेकिन वक्त के साथ रूस भी बदल गया है. रूस की राजधानी मॉस्को में बड़ी तादाद में अफगान शरण ले रहे हैं. 1980 के दशक में अफगानिस्तान के साथ एक दशक से ज्यादा चली जंग में रूस के 15,000 सैनिक मारे गए थे. अब अफगानिस्तान में रूस नए सिरे से रूचि ले रहा है. रूस सद्भावना का संकेत देते हुए चुपचाप अफगानों को फलने फूलने की इजाजत दे रहा है.
रूस में अफगानों के लिए प्रवासी सेंटर चलाने वाले गुलाम जलाल कहते हैं, "अब पहले जैसा नहीं है. रूसी अब हमारा स्वागत करते हैं." जलाल रूस में अपने देश के लोगों के लिए रोजगार तलाश करते हैं और सेंटर के जरिए अफगानी भाषा और परंपरा को जिंदा रखने की कोशिश करते हैं. पाकिस्तान और ईरान के बाद अफगानों का रूस तीसरा सबसे बड़ा ठिकाना है.
दोस्ती की नई इबारत
मॉस्को में स्थित आधुनिक अफगानिस्तान अध्ययन केन्द्र के निदेशक उमर निसार कहते हैं, "रूस में लगभग 150,000 अफगान रहते हैं. शायद ही कुछ लोग गैरकानूनी तरीके से यहां आए हों." रूस के माइग्रेशन सेंटर ने इस बारे में बात करने से इनकार कर दिया है. लेकिन काबुल में एक पूर्व सांसद ने इस बात को कबूल किया है कि रूस ने अफगानिस्तान से भाग रहे लोगों का स्वागत किया है.
6 साल तक सांसद रहे नूरुल हक उलुमी कहते हैं, "अपने देश में बिन बुलाए मेहमान कोई नहीं चाहता है. यह मामला राजनीति से जुड़ा है. रूस फिर इस बात को कायम करना चाहता है कि वह अफगानों का दोस्त है."
कभी दुश्मन, अब दोस्त
फिलहाल अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व में चल रही जंग में रूस ने सैनिक भेजने से इनकार कर दिया है. रूस वहां मूलभूत सुविधाएं तैयार कर रहा है. हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स पर भी रूस काम कर रहा है. काबुल में रूस के राजदूत इस रिश्ते को बीस सालों का सबसे अच्छा समय बताते हैं.
जलाल का दफ्तर मॉस्को के पॉश इलाके में हैं. यहां करीब 8,000 अफगान काम करते और रहते हैं. उनकी अपनी मस्जिद है, अपना टीवी स्टेशन और साप्ताहिक अखबार भी है. उनके स्कूलों में बच्चों को दारी और पश्तो भाषा सिखाई जाती हैं, जबकि नौजवान रूसी सीखते हैं. शरणार्थी यहां चीन के बने उत्पाद बेचते हैं. सस्ते सामानों की चाह रखने वालों की यहां अच्छी भीड़ जुटती है.
जिंदा है भाषा और संस्कृति
हेरात से रूस पहुंचे नहीम कहते हैं कि रूस ने उन्हें विपदा से बचाया है. पिछले 10 सालों से अमेरिकी फौज तालिबान से लड़ रही है. मॉस्को थिंकटैंक के निसार कहते हैं कि पिछले तीन दशकों से अफगानों का रूस आने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
12 साल का मोहम्मद बताता है, "हमने वापस जाने का सोचा था लेकिन बाद में फैसला बदल लिया. मैंने अपनी मातृभूमि नहीं देखी है. मैं देखना भी नहीं चाहता, वहां हालात डरावने हैं." मोहम्मद पढ़ाई के अलावा अपने पिता की इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान पर काम भी करता है.
रिपोर्ट:रॉयटर्स/ आमिर अंसारी
संपादन:ए कुमार