अरब क्रांति के बाद बढ़े सलाफी
१७ सितम्बर २०१२खास तौर पर लीबिया, मिस्र और ट्यूनीशिया में सुन्नी मुसलमानों के सलाफी जत्थे ने तेजी से जोर पकड़ा है. यही वे तीन देश हैं, जिनकी क्रांतियों ने पिछले साल पूरी दुनिया का ध्यान खींच रखा था. सलाफी शरीया के नियमों के तहत सख्त कानून और पहनावे की वकालत करते हैं. हालांकि सभी सलाफी हिंसक नहीं लेकिन हाल के दिनों में इनका एक बड़ा हिस्सा हिंसा करने में परहेज नहीं कर रहा है.
पेरिस के साइंसेसपो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर यान पीयर फिलियू का कहना है, "वे सत्ता में बंटवारा चाहते हैं और अपने इस काम को पवित्र बताते हुए हिंसा को बहाना बनाते हैं."
सऊदी अरब से प्रसारित होने वाले धार्मिक टेलीविजन चैनलों को इसकी जड़ समझा जाता है. सलाफी लोगों का मुख्य ठिकाना भी सऊदी अरब ही है. पिछले 20 साल में सलाफियों की संख्या बहुत बढ़ी है.
हालांकि बहुत सारे अरब देशों में उन पर सख्ती होती है लेकिन अल जजीरा के वरिष्ठ रिसर्चर बशीर नफी का कहना है कि कुछ जगहों पर उन्हें इसलिए बढ़ावा दिया जाता है ताकि कट्टरवादियों के बीच दरार पैदा की जा सके और मुस्लिम ब्रदरहुड को कमजोर किया जा सके.
ब्रदरहुड करीने और नियम कायदों के साथ बनी पार्टी है, जबकि सलाफियों के साथ ऐसा नहीं है. जानकारों का कहना है कि वे छोटे छोटे गुटों में बने हैं, जो छोटे छोटे इलाकों में काम करते हैं और उनकी मान्यता आम तौर पर कट्टर इस्लाम की है. अवेकनिंग इस्लाम: द पॉलिटिक्स ऑफ रिलीजियस डिसीडेंट इन कंटेम्प्रेरी सऊदी अरेबिया नाम की किताब लिखने वाले स्टेफान लैकरोए का कहना है कि उनके राजनीतिक लक्ष्य उतने बड़े नहीं होते हैं, जितना कि उनका सामाजिक धार्मिक लक्ष्य होता है.
प्रोफेसर फिलियू का कहना है कि आम तौर पर सलाफी शब्द का इस्तेमाल मुस्लिम ब्रदरहुड और सऊदी अरब समर्थित मुसलमानों में फर्क करने के लिए होता है. उनका कहना है, "कतर ने अरब क्रांति में बड़ी भूमिका निभाई और अब वह मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ मिल कर काम कर रहा है."
जिन अरब देशों में दशकों से तानाशाहों का राज था, वहां का राज खत्म होने के बाद सलाफियों का बोलबाला हो गया है. लीबिया में सलाफियों ने मुसलमानों के मजार तक गिरा दिए हैं. उनका कहना है कि यह इस्लाम के मुख्य बिंदु के अनुसार गलत है. उनमें से कई लोगों ने खुद को हथियारबंद गुटों में भी शामिल कर लिया है.
हालांकि अंसार अल शरीया नाम के एक सलाफी ग्रुप ने इस बात से इनकार किया है कि वह लीबिया में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर हमले में शामिल था. बेनगाजी शहर के इस हमले में अमेरिकी राजदूत सहित चार लोग मारे गए. बताया जाता है कि इस्लाम विरोधी फिल्म "इनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स" के खिलाफ यह हिंसा भड़की.
इसी तरह ट्यूनीशिया में भी सलाफियों की गुस्साई भीड़ ने अमेरिकी दूतावास पर हमला किया, जिससे निपटने के लिए पुलिस ने बल प्रयोग किया और जिसमें चार लोगों की मौत हो गई. इस मामले में 50 लोग घायल भी हुए. ट्यूनीशिया में जैनुल आबदीन बेन अली के कार्यकाल में सलाफियों पर पाबंदी थी. पिछले साल सत्ता से हटाए जाने के बाद वह सऊदी अरब भाग गए हैं. अरब क्रांति की शुरुआत इसी घटना से हुई थी.
अब सलाफी सीधे तौर पर दो हिस्सों में बंट गए हैं. एक तो हिंसा का विरोध करने वाले धार्मिक वाचक हैं, जबकि दूसरे जिहाद के रास्ते पर बढ़ चले लोग हैं. फिलियू का कहना है, "अरब के बहुत से सलाफी अभी भी राजनीति से दूर रहना चाहते हैं. वे इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि अगर इस्लाम के खिलाफ कुछ हो रहा हो तो वे हिंसक तरीके से इसका विरोध कर सकें."
लेकिन मिस्र में सलाफियों की सलाफिस्ट अल नूर पार्टी गहराई से राजनीति कर रही है. हाल के चुनावों में इसे अच्छी कामयाबी भी मिली है. मुस्लिम ब्रदरहुड के बाद सलाफी पार्टी दूसरे नंबर पर है, जिसे मिस्र के संसदीय चुनाव में 25 प्रतिशत सीटों पर कामयाबी मिली है.
नफी का कहना है कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा, "सलाफियों का उदय एक बदलाव के दौर से गुजरने की प्रक्रिया है. आजादी और लोकतंत्र उन्हें उनके असली आकार में धकेल देगा."
एजेए/एएम (एएफपी)