उदारीकरण से बढ़ी है बाल मजदूरी
१२ जून २०१२भारत में गरीब बच्चों की स्थिति तो और भी खराब है. सरकारी आंकड़े बताते हैं भारत में 1 करोड़ 26 लाख बच्चे मजदूरी में लगे हुए है. बाल मजदूर दिवस पर डॉयचे वेले ने बात की एनसीपीसीआर (नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स) की अध्यक्ष, शांता सिन्हा से. समाजिक सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें साल 2003 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिल चुका है. साल 2006 में भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया है. उनसे बातचीत के कुछ अंश...
आजादी के इतने साल बीत गए लेकिन फिर भी बाल मजदूरी पर भारत रोक नहीं लगा सका है क्यों...
शांता सिन्हाः देखिए, इसके कई कारण है. पहला कारण तो समाज में जागरुकता की कमी है. बाल मजदूरी को हम समान्य घटना के तौर पर लेते हैं. और कई बार तो इसका समर्थन भी करते हैं. हम कई बार होटल या ढाबे में जाते हैं वहां छोटी उम्र के बच्चे काम करते हैं लेकिन उन्हें देखकर भी हमारे दिल दिमाग में नहीं आता. दूसरा हमारे देश में इस बारे में जो कानून हैं वो भी कमजोर हैं. देश का कानून पूरी तरह से बाल मजदूरी पर प्रतिबंध नहीं लगाता. सिर्फ जो फैक्ट्रियों वगैरह में काम करते हैं उन्ही पर रोक है. खेती बाड़ी में जो बाल मजदूर हैं उन्हें हम बाल मजदूर मानते ही नहीं. घरेलू नौकरों को भी बाल मजदूरों की श्रेणी में नहीं रखा जाता. तो बाल मजदूरी की परिभाषा जितनी व्यापक होनी चाहिए वो नहीं है. तो ये समाज और कानून दोनों की समस्या है.
जो लोग बाल मजदूर रखते हैं सरकार उनके खिलाफ कडी़ कार्रवाई क्यों नहीं करती या कर पा रही है. अभी दिल्ली में कई सारे ऐसे मामले आए हैं जिनमें पढ़े लिखे अमीर तबके के लोग बाल मजदूर रखने के मामले में आरोपी पाए गए...
शांता सिन्हाः बहुत सारे मामलों में ऐसा है लेकिन कई बार कानून की सहायता से ऐसे बच्चों को छुड़ाया भी गया है. कई बार बड़े लोगों के घर से भी ऐसे बच्चों को छुड़ाया गया है. एक महीने में 400 से 500 बच्चों को ही छुड़ाया जाता है. कई बार तो एक दो को ही छुड़ा पाते हैं. पर असली संख्या तो लाखों में है. इतने बड़े पैमाने पर काम करने के लिए एक मिशन की जरूरत है. ज्यादा दबाव डालने की जरूरत है.
आप जिस संस्था, एनसीपीसीआर में काम करती हैं वो भी सरकारी संस्था है. क्या आपकी संस्था ने बच्चे छुड़वाए हैं...
शांता सिन्हाः देखिए,हम मॉनिटरिंग एजेंसी की तरह काम करते हैं. हमारा काम कानून लागू करना नहीं है. सरकार की नीतियों और कानून में जो खामियां हैं उसे हम उठाते हैं.हम डॉक्यूमेंट तैयार करते हैं और सरकार को सलाह देते हैं कि फलां चीज बाल मजदूर कानून के दायरे में नहीं हो रही. हमने तो दिल्ली हाईकोर्ट में भी अर्जी दाखिल की है कि जो बच्चे शिक्षा से वंचित हैं उन्हें बाल मजदूरी के दायरे में लाया जाना चाहिए. और सभी बच्चों को स्कूल भेजा जाना चाहिए. हामारा काम दबाव बनाने का है लेकिन हम सरकार को कानून लागू करने के लिए नहीं कह सकते. ये श्रम मंत्रालय का काम है.
आपने सरकार को बाल मजदूरी खत्म करने के बारे में क्या सुझाव दिया है...
शांता सिन्हाः हमारा अब तक का सबसे बढ़ा सुझाव था वो हमने दिल्ली हाईकोर्ट को दिया था. उसे हाईकोर्ट ने मान भी लिया है. हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया है कि जो बच्चे स्कूल से वंचित हैं उन्हें बाल मजदूरी के दायरे में लाना चाहिए. इसका असर भी हुआ है. पिछले तीन साल में दिल्ली में बाल मजदूरी को लेकर जो भी काम सरकार ने किया है वो सब दिल्ली हाईकोर्ट के एक्शन प्लान के दायरे में हुआ है. हमारी संस्था ने बाल मजदूरों को छुड़ाना कैसे है. उनकी पुनर्स्थापना कैसे करनी है इस बारे में एक्शन प्लान तैयार किया है और उसे कोर्ट ने मान्यता दे दी है. लेकिन फिर भी मैं कहूंगी कि जितना होना चाहिए वो नहीं हो रहा है.
बाल मजदूरी के मसले पर बहुत सारे एनजीओ काम कर रहे हैं. उनकी भूमिका को आप कैसे देखती हैं...
शांता सिन्हाः कुछ एनजीओ हैं जो अच्छा काम कर रहे हैं.वो सरकार को बताते हैं कि कहां काम कर सकते हैं. सरकार को आंकड़े उपलब्ध कराते हैं. ये आसान काम नहीं है. अगर बाल मजदूरी करने वाले बच्चों की पहचान हो भी गई तो भी इसमें काफी वक्त लगता है. उन्हें ये यकीन दिलाना पड़ता है कि हम उनके साथ हैं. उनका हौसला बढ़ाना पड़ता है.
90 के बाद हुए उदारीकण के बाद ये देखने में आया है कि जो अमीर हैं वो और अमीर हुए हैं और जो गरीब हैं वो और गरीब हुए हैं. बच्चों पर इस इसका क्या असर पड़ा है...
शांता सिन्हाः हमको लगता है कि इसका बच्चों पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है. केवल ग्लोबलाइजेशन नहीं हुआ है. काम का भी साधारणीकरण हुआ है. जब बहुत सारे काम घरेलू के दायरे में आते हैं तो बाल मजदूरी को बढ़ावा तो मिलता ही है. पहले ये काम महिलाएं किया करती थीं. क्योंकि महिलाएं सस्ता श्रम थीं. अब बच्चे उनसे भी ज्यादा सस्ते हैं. ग्लोबलाइजेशन का बच्चों पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है.
इंटरव्यूः विश्वदीपक
संपादनः आभा मोंढे