जर्मनी के साथ खास रिश्ताः पवन कुमार रुइया
३० मार्च २०११डनलप इज डनलप, ऑलवेज एहेड, भारत में बनने वाले डनलप ब्रांड के टायर बनाने वाली ब्रिटिश मूल की कंपनी के विज्ञापन की यह मशहूर पंक्तियां अब भी लोगों के जहन में ताजा हैं. बाद में यह कंपनी बीमार हो गई और लोग धीरे-धीरे इस ब्रांड को भूलने लगे. लेकिन रुइया इसे जीवनदान देने के लिए मसीहा के रूप में आए.
उन्होंने बीते दो वर्षों के दौरान तीन जर्मन और एक ब्रिटिश कंपनी का अधिग्रहण किया है. इस साल की शुरूआत में उन्होंने एक जर्मन कंपनी एक्यूमेंट का अधिग्रहण कर उसे रुइया ग्लोबल फास्टनर्स का नाम दिया है. उन्होंने हाल में जिन कंपनियों का अधिग्रहण किया है उनमें इंग्लैंड की श्लेगल आटोमोटिव यूरोप लिमिटेड, जर्मनी की ड्राफ्टेक्स आटोमोटिव, गुमासोल और एक्यूमेंट जैसी पुरानी कंपनियां शामिल हैं.महज आठ वर्षों में कोलकाता स्थित रुइया समूह को तीन सौ करोड़ से साढ़े चार हजार करोड़ का समूह बनाने वाले रुइया ने अपने अब तक के सफर, चुनौतियों और भावी योजनाओं के बारे में डॉयचे वेले के साथ बातचीत की.
अधिग्रहण की शुरुआत
पवन कुमार अपने शुरुआती सफर के बारे में बताते हैं, “अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1980 में मैंने पेशेवर सलाहकार के तौर पर काम शुरू किया. वर्ष 2000 तक यह काम करने के बाद मैं व्यापार की ओर मुड़ा. वर्ष 2003 से मैंने बीमार कंपनियों का अध्ययन करने के बाद उनका अधिग्रहण शुरू किया. उन कंपनियों को लेकर उनमें जान फूंकने और उनको मुनाफे की राह पर लौटाने की दिशा में काम करने लगा.”
व्यावसायी रुइया ने डनलप और जेसप एंड कंपनी जैसी बहुत नामी लेकिन बीमार कंपनियों का अधिग्रहण कर उनको मजबूत हालत में पहुंचा दिया. पवन कहते हैं कि मर्ज को समझने के बाद ही दवा दी जा सकती है, "हर कंपनी की अपनी समस्या होती है. उसका विश्लेषण करना होता है. जब जेसप और डनलप की बात आई तो उस समय उत्पादकता कम थी. वहां साफ विजन नहीं था. कोई समुचित योजना नहीं थी. आर्डर की कोई पारदर्शिता नहीं थी. हमने अधिग्रहण के बाद सबकी जवाबदेही तय की और हर पहलू पर ठोस काम शुरू किया. धीरे-धीरे काम शुरू किया. उसी का नतीजा है कि यह कंपनियां मुनाफे में लौटने लगीं. जेसप एंड कंपनी अब पांच-छह साल से लगातार लाभांश दे रही है."
आंकड़ों के लिहाज 2003 में रुइया समूह का टर्नओवर महज तीन सौ करोड़ था. लेकिन अब यह साढ़े चार हजार करोड़ तक पहुंच गया. यानी शून्य से शिखर तक का सफर बेहद कम समय में तय किया है. पवन मानते हैं, "किसी भी काम में जब तक सौ फीसदी लगन और चाह नहीं होगी और उस चाह को पूरा करने के लिए मेहनत नहीं करेंगे तो कभी कामयाबी नहीं मिल सकती. मेरे मन में हमेशा विकास की चाह थी और यह अधिग्रहण के जरिए ही संभव था. इसलिए हमने 2003 में अधिग्रहण शुरू कर उन कंपनियों को मजबूत हालत में पहुंचाया. भगवान ने भी साथ दिया. समूह से जुड़े तमाम लोगों ने इसमें योगदान दिया है. विकास तो बहुत लोगों ने किया और कर रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इसमें आप खुश हैं. क्या इस काम में आपको आनंद मिल रहा है. बीते सात-आठ वर्षों में तनाव के दौर तो बहुत आए. लेकिन मुझे या समूह से जुड़े किसी के मन में भी यह ख्याल नहीं आया कि वे बहुत परेशानी में हैं. हमने हर परेशानी को चुनौती समझा और मजबूती से उसका मुकाबला किया. इसलिए कामयाबी हमारे हाथ लगी. अगर आदमी किसी काम का दृढ़निश्चय कर ले और उसमें अपनी पूरी ताकत लगा दे तो उसकी कामयाबी तय है."
कई कंपनियों का अधिग्रहण
रुइया समूह ने पहले ही भांप लिया था कि आटो सेक्टर में विश्व में विकास तेज होने वाला है. "सबको मंदी के बाद बुरा दौर शुरू होने की आशंका थी. लेकिन हमने इसे मौका माना. पहले जिन कंपनियों के साथ तालमेल में भी मुश्किलें आती थी, वे मंदी की मार से बिकने के लिए तैयार थीं. हमे पता था कि जर्मनी या यूरोप में आटो हब है और विश्व की तमाम बेहतरीन कंपनियां वहां हैं. तब हमने वहां अधिग्रहण पर ध्यान देना शुरू किया. जहां भी ऐसी कंपनियां मिलीं उनके अध्ययन के बाद हमने उनका अधिग्रहण कर लिया. यही वजह है कि बीते तीन वर्षों में हमने तीन-चार कंपनियों का अधिग्रहण किया है."
जर्मनी से प्रेम
लगातार तीन जर्मन कंपनियों का अधिग्रहण पवन कुमार रुइया ने किया है. अपने जर्मनी से रिश्ते के बारे में रुइया कहते हैं, "जर्मनी से मेरा हमेशा एक अहम और भावनात्मक रिश्ता रहा है. भारत में भी अपने संयंत्र लगाने पर मैं जर्मनी की मशीनों को ही तरजीह देता था. इसकी वजह यह है कि जर्मन मशीनों की तकनीक और प्रदर्शन औरों के मुकाबले बेहतर है. जर्मनी के लोग हर काम के प्रति चौकस होते हैं और उनका ध्यान अपने लक्ष्य पर होता है. वह परफेक्शनिस्ट होते हैं. मैनें देखा कि जर्मन कंपनी में जाएं तो टेक्नालाजी बहुत बढ़िया मिलेगी. उस टेक्नालाजी को भारत में लाकर हम उसका इस्तेमाल यहां भी कर सकते हैं. मैंने सोचा कि अगर हम ऐसी कंपनियों का अधिग्रहण करते हैं जिनका संबंध दुनिया में आटोमोबाइल क्षेत्र की बेहतरीन कंपनियों के साथ है तो हमारे लिए भारत में उस उत्पाद के विपणन का काम काफी आसान हो जाएगा. तीसरी वजह यह थी कि मंदी के दौर में जर्मन कंपनियां ज्यादा प्रभावित हुईं. मंदी की मार सबसे पहले आटोमोबाइल क्षेत्र पर ही पड़ी. इसलिए वहां ज्यादा कंपनियां बिकने के लिए तैयार थीं. इसके अलावा एक अहम बात यह है कि जब आप एक जर्मन कंपनी खरीदते हैं तो वहां का पूरा सिस्टम समझ में आ जाता है. मुझे पहली कपंनी खरीदने में डेढ-दो साल तक मेहनत करनी पड़ी थी. जर्मनी की विशेषता यह है कि अगर उन्होंने आपको स्वीकार कर लिया तो पूरा समर्थन भी देते हैं. यही वजह थी कि मुझे दूसरी और तीसरी कंपनी काफी आसानी से मिल गईं. हम आगे भी जर्मनी में अधिग्रहण के लिए कंपनियों की तलाश कर रहे हैं."
अंतर नहीं
भारत और जर्मनी में बिजनेस फिलॉसफी के बारे में सवाल पूछने पर पवन कुमार का कहना है. "मेरी नजर में तो कोई खास अंतर नहीं है. यह जरूर है कि वहां लोग किसी खास उत्पाद पर ध्यान केंद्रित रखते हैं और यहां लोग विविध उत्पाद बनाते हैं. भारत एक बहुत बड़ा बाजार है और यहां भविष्य में उत्पादों की मांग बढ़ने वाली है जबकि जर्मनी में सैचुरेटेड मार्केट है. वहां विदेशों से मांग आती है. इसलिए मुझे लगता है कि जर्मन तकनीक और भारतीय मांग का बढ़िया तालमेल होगा आने वाले दिनों में और इससे दोनों ही देशों को फायदा होगा."
भारत और जर्मनी की कार्य संस्कृति कई मायनों में अलग है. लेकिन पवन इसे मुश्किल नहीं मानते. "देखिए, जर्मनी हो या विश्व का कोई और देश, सांस्कृतिक भिन्नता तो हमेशा रहेगी. हमारे और विदेश के लोगों के सोचने और काम करने का तरीका अलग है. आज किसी भी अधिग्रहण में सबसे बड़ी चुनौती सांस्कृतिक भिन्नताओं के बीच तालमेल बिठाने का है. ऐसे में जर्मनी की कंपनियों को वहां के नजरिए से देखना होगा, भारत के नजरिए से नहीं. वहां के नजरिए से देखने पर कामयाबी तय है. लेकिन भारत की संस्कृति को वहां थोपने की हालत में कामयाबी नहीं मिल सकती. उनकी संस्कृति और सोच को समझ कर अपनी सोच को उस स्तर तक लाना सबसे जरूरी है."
दूसरी पत्नी
पवन कुमार रुइया का पहला प्यार बिजनेस है और इसी बात से उन्होंने अपनी पत्नी को भी चौंका दिया. "देखिए, ऐसा है कि मैंने शादी के बाद ही पत्नी को कहा था कि तुम मेरी दूसरी पत्नी हो. वह चौंक गई कि क्या बोल रहे हैं. मैंने कहा कि पहली पत्नी मेरा काम है और दूसरी तुम हो. वह अच्छी तरह समझ गई है कि मुझे काम से बेहद लगाव है और उसने आज तक मेरे हर काम में भरपूर सहयोग दिया है. उन्होंने मान लिया है कि काम ही मुझे खुशी दे सकता है और इसलिए हमेशा मुझे खुश रखने की भरपूर कोशिश की है. मुझे पूरे परिवार से काफी सहयोग मिला है. पत्नी, भाई, माता जी और बच्चों-सबने हर तरह मुझे सहयोग दिया है. पत्नी ने पारिवारिक चिंताओं व जिम्मेदारियों से मुक्त रख कर आगे बढ़ने में मेरी सहायता की. परिवार का सहयोग मेरी प्रगति की एक बहुत बड़ी वजह है."
कर्म ही सब कुछ
आने वाले समय में आप आटोमोबाइल उद्योग के बारे में पवन कुमार कहते हैं, "विश्व में इसका विकास दर 6.9 रहने का अनुमान है लेकिन भारत व चीन में यह दर 26 फीसदी होगी. आटोमोबाइल के कल-पुर्जों का व्यापार फिलहाल 26 बिलियन अमेरिकन डालर का है जो 2020 तक पांच गुना बढ़ कर 110 बिलियन डालर तक पहुंच जाएगा. "
पवन कुमार रुइया ने जितनी भी कंपनियां अभी तक खरीदी हैं वह सौ साल या और पुरानी हैं. "यह एक संयोग ही है. मैं भी इसका अध्ययन करूंगा. लेकिन कंपनियां पुरानी हो या नई, जो कंपनी अपनी तकनीक को लगातार अपडेट करती रही है उनको लेकर चलाने में कोई खास दिक्कत नहीं है. यह तमाम कंपनियां आगे चल कर और बेहतर प्रदर्शन करेंगी. हम भारतीय गीता को मानते हैं जिसमें कहा गया है कि मनुष्य का अधिकार कर्म पर है फल पर नहीं. हम लोग अपना कर्म कर रहे हैं.
रिपोर्टः प्रभाकर,कोलकाता
संपादनः आभा एम