जर्मनी में ऊर्जा का भविष्य
८ जून २०११सोमवार को परमाणु कानून संशोधन विधेयक पर विचार करने के लिए जर्मन कैबिनेट की विशेष बैठक हुई. कैबिनेट ने विधेयक के मसौदे को पास कर दिया गया. इसके अनुसार 8 परमाणु बिजलीघरों को तुरंत बंद कर दिया जाएगा जबकि दूसरे 9 को क्रमिक रूप से बंद किया जाएगा. जिन 8 परमाणु बिजलीघरों को तुंरत बंद किया जाना है उनमें से एक को सर्दियों में बिजली की संभावित कमी का सामना करने के लिए 2013 तक तैयार स्थिति में रखा जाएगा. संघीय ऊर्जा एजेंसी आने वाले सप्ताहों में इस बात का फैसला करेगी कि क्या इस तरह के स्टैंडबाय परमाणु बिजलीघर की जरूरत है.
जर्मनी के पर्यावरण मंत्री नॉर्बर्ट रोएटगेन ने कैबिनेट के फैसले को ऐतिहासिक बताया है, "मुझे पूरा विश्वास है कि जर्मन सरकार का फैसला हमारे देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में मील का पत्थर है. हम परमाणु ऊर्जा पर वर्षों से हो रही बहस को सामाजिक नतीजे पर पहुंचा रहे हैं." वहीं साझा सरकार में शामिल एफडीपी पार्टी को आर्थिक असर की चिंता है. पार्टी प्रमुख और अर्थनीति मंत्री फिलिप रोएसलर कहते हैं, "अर्थनीति मंत्री के लिए इस पूरी परियोजना का खर्च भी महत्वपू्र्ण है, क्योंकि मामला जर्मनी के औद्योगिक भविष्य का है."
कब होगा कौन सा संयत्र बंद?
जर्मनी में इस समय कुल 17 परमाणु बिजलीघर हैं. तुरंत बंद किए जाने वाले 8 परमाणु बिजलीघरों के बाद बाकी बचे 9 बिजलीघरों को 2015 से 2022 तक एक के बाद एक बंद किया जाएगा. 2015 और 2017 में बवेरिया के एक एक बिजलीघर को बंद किया जाएगा. 2019 में बाडेन व्युर्टेमबर्ग का एक बिजलीघर बंद होगा जबकि 2021 में लोवर सेक्सनी, श्लेस्विग होलस्टाइन और बवेरिया के एक एक बिजलीघर बंद होंगे. 2022 में बाकी परमाणु बिजलीघरों को बंद कर दिया जाएगा. सरकार की कोशिश है कि परमाणु बिजलीघरों के बंद होने के बावजूद छोटे उद्यमों के लिए बिजली सस्ती बनी रहे ताकि उनका काम चलता रहे और रोजगार भी बने रहें.
परमाणु संयंत्रों के बंद होने की तिथि निर्धारित करना सरकार के लिए जरूरी इसलिए भी हो गया था क्योंकि जनता और विपक्ष में सरकार के एलान के बाद भी अविश्वास की भावना बनी हुई थी. जर्मनी में ग्रीन पार्टी के अध्यक्ष सेम ओएजदेमीर ने कहा था, "मुझे उन पर बिलकुल भरोसा नहीं है, बल्कि मुझे तो इस बात की चिंता है कि वे तब कहेंगे कि अब हमारे आगे एक समस्या है, हम एक साथ सारे संयंत्र बंद नहीं कर सकते, हमें अपना फैसला वापस लेना पड़ेगा. भरोसे लायक बात तो यही होगी कि एक एक कर के इन्हें बंद किया जाए, हर एक के लिए एक तिथि निर्धारित की जाए, ताकि वापसी के लिए सभी दरवाजे बंद हो जाएं."
फुकुशिमा से ली सीख
लेकिन जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने लोगों को निराश नहीं होने दिया. जापान में सूनामी के कारण फुकुशिमा परमाणु बिजलीघर में हुई दुर्घटना के बाद मैर्केल ने परमाणु नीति में बदलाव करने का फैसला किया. पिछले ही साल मैर्केल की साझा सरकार ने परमाणु बिजलीघरों के लाइसेंस को औसत 12 साल के लिए बढ़ा दिया था. योजना के मुताबिक अंतिम परमाणु बिजलीघर को 2036 में बंद किया जाता.
परमाणु संयंत्र बंद तो हो रहे हैं लेकिन मैर्केल आगे के लिए चेतावनी भी दे रही हैं, "हमने फुकुशिमा से सीख ली है कि हमें हर तरह के खतरे के लिए तैयार रहना चाहिए. इसका मतलब यह है कि हमें इस बात को ध्यान में रखना है कि शायद कभी ब्लैकआउट जैसी स्थिति भी आ सकती है. हम इस उम्मीद पर नहीं जी सकते कि ऐसा कभी नहीं होगा, बल्कि हमें यह ध्यान में रखना है कि हम एक जोखिम उठा रहे हैं और उसके लिए हमें तैयार रहना है. यह देश के लिए काफी बड़ा नुकसान हो सकता है."
विकल्पों पर संदेह
बिजली कंपनियां नए कानून का विरोध कर रही हैं और इसके खिलाफ अदालत में जाने की संभावना से इनकार नहीं कर रहीं. वहीं पर्यावरणवादी परमाणु बिजलीघरों को और जल्द बंद करने की मांग कर रहे हैं. ऐसे में जानकारों का मानना है कि अब सवाल परमाणु संयंत्रों को बंद करने का नहीं बल्कि ऊर्जा के नए स्रोत तलाशने का है. जर्मन ऊर्जा एजेंसी देना के अध्यक्ष श्टेफान कोह्लर कहते हैं, "आप जरा देश के नक्शे पर नजर डालें. दो तिहाई परमाणु ऊर्जा दक्षिण जर्मनी में पैदा होती है, एक तिहाई उत्तर में, यानी हैमबर्ग और ब्रेमन में. बाकी जगह कोयले से बिजली बनाई जाती है. अब यदि हम दो तिहाई बंद कर दें और कहें कि हम देश के उत्तरी भाग में पवन ऊर्जा का उत्पादन करेंगे तो दक्षिण को उसका कोई फायदा नहीं मिलेगा, क्योंकि हमारे पास वहां तक बिजली पहुंचाने के लिए नेटवर्क ही नहीं है."
सरकार कई विकल्प खोज रही है, लेकिन कोह्लर को सरकार के अन्य विकल्पों पर भी संदेह हैं, "सरकार चाहती है कि अब समुद्र के बीचोबीच बिजली घर बनाई जाए. यानी भविष्य में बिजली का उत्पादन वहां किया जाएगा जहां उसका इस्तेमाल नहीं होता. यह एक नई चीज है क्योंकि अब तक बिजली वहीं बनती आई है जहां उसकी जरूरत होती है. पर अब चीजें बदल रही हैं और ऐसा करने के लिए हमें नई संरचना की जरूरत है."
तेल नहीं गैस है भविष्य
जर्मनी में औद्योगिक जरूरत के लिए गैस के निर्माता द लिंडे ग्रुप के निदेशक वोल्फगांग राइत्सले का मानना है कि सरकार को प्राकृतिक गैस के बारे में सोचना चाहिए, "केवल अमेरिका एक ऐसा देश है जिस के पास इस समय गैस का इतना भण्डार है कि उसे अगले दो सौ सालों तक गैस के आयात की जरूरत नहीं पड़ेगी. आप जरा सोचिए, आज से तीन साल पहले तक स्थिति बिलकुल अलग थी. वहां एक क्रान्ति आई है, लेकिन किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया. और इसीलिए मुझे लगता है कि हमारे पास भी आने वाले समय में गैस का अनगिनत भण्डार होगा और इसकी कीमत भी कम होगी. खुशकिस्मती कि बात है कि दुनिया में कई जगह ऐसा ही हो रहा है. और राजनैतिक तौर पर देखा जाए तो तेल की तरह यहां कोई जोखिम भी नहीं है. इसीलिए मैं सोचता हूं कि हम सब की यही सलाह होगी की जहां तक हो सके तेल की जगह गैस का इस्तेमाल करना चाहिए."
कोह्लर भी इसका समर्थन करते हैं, क्योंकि कोयले से बिजली का उत्पादन करना पर्यावरण के लिए और भी हानिकारक साबित हो सकता है, "सरकार ने फैसला लिया है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात का वादा किया है कि वह कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को चालीस प्रतिशत तक कम करेगी. यह एक मील का पत्थर है. सवाल यह उठता है कि अब बिजली की पैदावार किस तरह से होगी. हम परमाणु ऊर्जा बंद करने की बात कर रहे हैं. अब हमें अपने पूरे एनर्जी सिस्टम को एक नई दिशा देने के बारे में सोचना है."
बिजली की कटौती?
जर्मनी ने परमाणु ऊर्जा को अलविदा कहने के बाद अगले ग्यारह सालों में जर्मनी में किस तरह से ऊर्जा का उत्पादन किया जाएगा यह समय के साथ तय होगा. कई लोगों को डर है कि शायद जर्मनी में भी एशिया और अफ्रीका के देशों की तरह बिजली की कटौती की जाएगी. पर ऊर्जा उत्पादन के लिए सरकार के विशेष आयोग के अध्यक्ष क्लाउस टोएप्फर इसे लेकर सकारात्मक हैं, "जरूरी यह है कि पर सवाल ना उठाए जाएं. नहीं तो आप जल्द ही एक ऐसे स्थिति में आ जाएंगे जहां आप अपनी सहारना में ही विशवास करने लगेंगे. अगर आप यह मान कर चलेंगे कि यह सफल नहीं हो सकेगा, तो वाकई में यह सफल नहीं होगा."
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: आभा एम