टूट के बाद रूस के 20 साल, और अब
१९ अगस्त २०११इन 20 सालों में वोल्गा नदी में बहुत पानी बह चुका है लेकिन 75 साल के कम्यूनिस्ट शासन के दौरान सामाजिक और राजनीतिक जीवन में जो छोटी छोटी झीलें तैयार हुईं, वे आज भी सूखी नहीं हैं. इसलिए लोकतंत्र की राह पर रूस अब भी दौड़ने की स्थिति में नहीं आ पाया है.
20 साल पहले सोवियत संघ के विघटन ने नए और बेहतर जीवन के सपनों को जन्म दिया था. वे सपने अब तक भी, सभी के लिए नहीं तो बहुत से रूसियों के लिए आधे अधूरे ही हैं. क्योंकि वहां राजनीति में अब भी एक ही आदमी का आधिपत्य है. फिलहाल आधिपत्य की इस कुर्सी पर व्लादिमीर पुतिन बैठे हैं.
ख्वाब पूरे कहां हुए
अगस्त 1991 में गोर्बाचेव की सत्ता पलटने की कोशिश के विरोध में जो लोग तीन दिन तक रूसी संसदीय मुख्यालय के बाहर टैंकों के सामने निडर खड़े रहे थे उन लोगों ने बहुत ज्यादा की उम्मीद की थी. तब एक स्टूडेंट रहीं मिलेना ओरलोवा उनमें से एक हैं. अब कला समीक्षक बन चुकीं ओरलोवा याद करती हैं, "वह एक नई शुरुआत महसूस हुई थी. हमें लग रहा था कि हम कुछ भी कर सकते हैं."
ओरलोवा कहती हैं कि कुछ सपने पूरे हुए, कुछ नहीं. उनके शब्दों में, "हमारे कुछ सपने तो सच हुए हैं. हमने विदेशों की यात्रा की. मेरे कुछ कलाकार दोस्तों ने आजादी का स्वाद चखा. लेकिन लोकतंत्र पीछे रह गया है. मुझे लगता है कि अब तक हमें काफी आगे पहुंच जाना चाहिए था."
सोवियत रूस के बारे में आजकल होने वाले सर्वेक्षणों में मिली जुली राय सामने आती है. बहुत से लोग, जिनमें बुजुर्ग ज्यादा हैं, पुरानी व्यवस्था को याद करते हैं. उन्हें लगता है कि तब सब कुछ जाना पहचाना था, जीवन में स्थिरता थी जिसकी अब कमी महसूस होती है.
स्थिरता का सवाल
बीते 20 साल को बहुत से इतिहासकार दो हिस्सों में बांटकर देखते हैं. एक येल्तसिन का अव्यस्थित दौर था जो 1999 में खत्म हुआ. और उसके बाद पुतिन का युग जिसमें ज्यादा स्थिरता आई. इस बात पर जानकारों में मतभेद हैं कि कम्युनिस्ट से लोकतांत्रिक व्यवस्था में रूस का परिवर्तन कितना सफल रहा. लेकिन एक बात को लेकर ज्यादातर लोग सहमत हैं कि रूसी लोग अब भी देश चलाने में उनकी कम भूमिका का दर्द महसूस करते हैं. रशियन एकेडमी ऑफ साइंसेज इंस्टिट्यूट ऑफ सोशियलॉजी में सेंटर ऑफ इलीट्स के अध्यक्ष ओल्गा क्रिश्तानोवस्काया कहती हैं, "रूस में आज भी लोकतंत्र की नकल ही काम कर रही है. लोगों को लगता है कि उनका वोट देना ज्यादा मायने नहीं रखता क्योंकि पुतिन जाते हैं तो उन्हीं जैसा कोई और आ जाता है. लोगों को लगता है कि रूसी राज्य सदियों से ऐसा ही रहा है और वह कभी नहीं बदलेगा."
येल्तसिन के दिन
येल्तसिन के सुधार भी कोई बहुत अच्छे साबित नहीं हुए. सोवियत रूस की अहम संपत्तियों को बड़े सस्ते में कुछ उद्योगपतियों को बेच दिया गया. उन्होंने अकूत धन जमा किया और राजनीतिक प्रभाव हासिल कर लिया. आम लोग उसी तरह संघर्ष करते रह गए. यानी रूस कटा और बंटा, पर आम आदमी के हाथ कुछ नहीं आया.
नए रूस में मीडिया ने बड़ी आजादी हासिल की है. नई राजनीतिक पार्टियों का जन्म हुआ. लेकिन भ्रष्टाचार भी बढ़ा और कानून राज को जगह नहीं मिल पाई. वॉशिंगटन की अमेरिकन यूनिवर्सिटी में रूसी मामलों में जानकार एंटन फेदियाशिन कहते हैं, "1990 के दशक में हुए परिवर्तन को सफल कहना मुश्किल है. खासतौर पर मध्य यूरोप के हालात देखकर तो यही लगता है जहां ज्यादातर देशों ने बेहतर लोकतांत्रिक रास्ता अपनाया."
पुतिन के दिन
1999 के आखिरी दिन येल्तसिन ने इस्तीफा दे दिया और सत्ता पुतिन के हाथों में आ गई. मार्च 2000 में राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से पूर्व केजीबी जासूस पुतिन आज तक रूसी राजनीति में सबसे प्रभावशाली व्यक्ति हैं. भले ही 2008 में उन्होंने राष्ट्रपति पद दिमित्री मेदवेदेव को सौंप दिया. जानकार कहते हैं कि पुतिन ने आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता कायम की है. उन्होंने अव्यवस्था के शिकार अस्त व्यस्त देश को मजबूत किया. देश की निजी आय में बढ़ोतरी का रास्ता तैयार किया. 2008 की आर्थिक मंदी के दौरान रूस के ज्यादा प्रभावित न होने का श्रेय पुतिन को ही दिया जाता है.
लेकिन पुतिन के आलोचक कम नहीं हैं. उनका कहना है कि जब पुतिन ने सत्ता संभाली तब दुनिया में आर्थिक उफान का दौर था. उस वक्त ऊर्जा क्षेत्र चमक रहा था इसलिए रूस को बढ़ती कीमतों का फायदा मिला न कि पुतिन की नीतियों का. आलोचक कहते हैं कि पुतिन ने तो सुधारों की राह में रोड़े अटकाए और एकाधिकारवादी सत्ता तैयार की जो लोकतंत्र जैसी नहीं है. मॉस्को के कार्नेगी सेंटर में राजनीतिक विश्लेषक निकोलाई पेत्रोव कहते हैं, "हमारा पुतिन और येल्तसिन दोनों पर आरोप है कि उन्होंने मौकों का सही फायदा नहीं उठाया. येल्तसिन के पास विशाल समर्थन था. पुतिन भी अचानक आई समृद्धि का फायदा उठा सकते थे. उनसे बड़ी बडी़ उम्मीदें थीं जो निराशा में बदल गईं."
रूस का भविष्य
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि रूस में लोकतंत्र की राह कभी भी आसान नहीं रही. हालांकि उसकी उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन उनकी तुलना पश्चिमी लोकतंत्र से नहीं की जानी चाहिए. विश्लेषक इवान क्रास्तेव, मार्क लियोनार्ड और एंड्रयू विल्सन ने अपने एक लेख में लिखा है, "येल्तसिन का रूस पश्चिमी मॉडल की नकल कर रहा था जबकि पुतिन और मेदवेदेव के रूस ने अपना नया मॉडल तैयार करने की कोशिश की है."
यह मॉडल क्या है या कैसा होगा, यह अभी साफ नहीं है. हालांकि रूस में आजकल आधुनिकता शब्द का बहुत इस्तेमाल होता है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि व्लादीमीर पुतिन फिर से राष्ट्रपति बनने की फिराक में हैं. चुनाव अगले साल मार्च में होने हैं. लेकिन कई उद्योगपति कहते हैं कि पुतिन अर्थव्यवस्था को खड़ा कर देते हैं इसलिए यह कोई अच्छी बात नहीं होगी. लेकिन देश में बदलाव के लिए माहौल और दबाव बन रहा है. इसलिए नेता कोई भी हो, रूस को अपनी मंजिल आधुनिकता को ही बनाना होगा.
रिपोर्टः एजेंसियां/वी कुमार
संपादनः महेश झा