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दहेज कानूनों की मार खाते पुरुष

२ अक्टूबर २०१२

भारत की छवि आज भी दुनिया के सामने एक पुरुष प्रधान समाज की है. देश में महिलाओं को बराबरी के हक दिलाने की लगातार कोशिश होती आई है, लेकिन कई बार इनका इस्तेमाल महिलाओं के हक में कम और पुरुषों के खिलाफ ज्यादा होता है.

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तस्वीर: Fotolia/konradbak

कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए का सबसे अधिक गलत इस्तेमाल किया जाता है. तीस साल पहले इस धारा में बदलाव किए गए थे ताकि विवाहित महिलाओं को उत्पीडन से बचाया जा सके. उस समय देश में दहेज के मामले तेजी से बढ़ रहे थे और उनका नतीजा लड़कियों के कत्ल या खदकुशी के रूप में दिख रहा था.

दहेज के खिलाफ कानून के कड़े होने से हालात कुछ सुधरे. हालांकि तीस साल बाद भी दहेज नाम का अभिशाप समाज से दूर नहीं हो पाया है. लेकिन इसके साथ ही पुरुषों के खिलाफ भी इसका इस्तेमाल बढ़ा है. शादी में तनाव हो तो पति और पति के परिवार के खिलाफ धारा 498ए के तहत शिकायत दर्ज करा दी जाती है और परिवार के खिलाफ फौरन गैर जमानती वारंट जारी हो जाता है.

Indien Kinderhochzeit in Rajgarh Brautpaar
तस्वीर: AP

कोई कानून नहीं

कानून के जानकारों का कहना है कि इसके अलावा 15 कानून और हैं जो बने तो पत्नियों और बहुओं की रक्षा के लिए हैं, लेकिन जिन्होंने पतियों और ससुराल वालों की नाक में दम किया हुआ है. इसमें घरेलू हिंसा, बलात्कार और यौन उत्पीडन के कानून शामिल हैं.

पुरुषों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि देश में एक भी कानून ऐसा नहीं जो पुरुषों के हक की रक्षा कर सके या उन पर गलत मुकदमे चलने से रोक सके. इंडियास मोस्ट वॉन्टड के होस्ट सोहेब इल्यासी खुद को इन्हीं कानूनों का शिकार मानते हैं. जनवरी 2000 में उनकी पत्नी की खुदकुशी की खबर आई और इल्यासी को हिरासत में ले लिया गया. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने कहा, "हमारा पूरा समाज समझता है कि केवल महिलाओं के साथ ही बुरा व्यवहार होता है."

इल्यासी ने इसी विषय पर एक फिल्म भी बनाई है, "इस फिल्म के जरिए हम इस बात की मांग कर रहे हैं कि मौजूदा कानूनों में बदलाव और सुधार किए जाएं और ऐसे कानून बनाए जाएं जिनसे स्त्री और पुरुष दोनों को फायदा मिल सके."

Indische Rupien
तस्वीर: AP

खुदकुशी के मामले दोगुना

2011 के आंकडें बताते हैं की खुदकुशी करने वाले शादीशुदा पुरुषों की संख्या महिलाओं से दोगुनी है. भारत के क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 45 से 49 की उम्र में तो यह संख्या तीन गुना है. पुणे स्थित मेन्स राईट एसोसिएशन के अजीत राजपरी बताते हैं कि उनके पास प्रतिदिन 15 से 20 फोन आते हैं, "पुरुषों की समस्यायों को हल करने में किसी की भी रुची नहीं है, लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तो सबके कान खड़े हो जाते हैं. ये कानून पुरुषों को लाचार बना रहे हैं."

राजपरा का कहना है कि वह महिला सशक्तिकरण के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन पुरुषों से अधिकार छीन कर महिलाओं को देना उन्हें सही नहीं लगता, "सशक्तिकरण नौकरियों से हो सकता है, पढ़ाई लिखाई से हो सकता है, ऐसे नहीं. हम चाहते हैं कि लोगों को यह बात समझ आए कि सभी पुरुष अपराधी नहीं होते. पुरुषों के खिलाफ इस पक्षपात को हटाना जरूरी है."

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली रंजना कुमारी इन कानूनो को बेहद जरूरी मानती हैं. उनके अनुसार जो लोग कानून बदलने की बात कर रहे हैं वे महिलाओं की समस्या को समझ नहीं पा रहे हैं, "वे भूल रहे हैं कि भारत में महिलाओं को किस तरह की हिंसा का सामना करना पड़ता है. वे उन आठ हजार महिलाओं को नहीं देख रहे जो हर साल दहेज के कारण अपनी जान गंवा रही हैं."

हालांकि रंजना कुमारी इस बात से भी इनकार नहीं करती कि पुरुषों के खिलाफ भी इनका इस्तेमाल होता है. उनका कहना है कि जो लोग फर्जी मुकदमों में फंसे हैं उन्हें मिल कर एक अभियान शुरू करना चाहिए ताकि वे दहेज लेने और देने के खिलाफ लोगों को जागरूक कर सकें.

रिपोर्ट: तनुश्री शर्मा संधू / ईशा भाटिया

संपादन: मानसी गोपालकृष्णन

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