1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

पढ़ाई लिखाई में पिछड़ने लगे हैं बच्चे

८ जून २०११

भारत के बड़े शहरों के बच्चे पढ़ाई लिखाई में पिछड़ने लगे हैं. मनोचिकित्सकों के मुताबिक कामकाजी मां बाप सही ढंग से बच्चों की परवरिश नहीं कर पा रहे हैं. बच्चे भी मशीनों की काल्पनिक दुनिया में घुस रहे हैं.

https://p.dw.com/p/11WgI
तस्वीर: picture-alliance/dpa

चीन में 17 साल के एक किशोर ने आईपैड-2 खरीदने के लिए अपनी एक किडनी बेच दी. आईपैड के जुनून में डूबे हाई स्कूल के इस छात्र ने एक वेबसाइट पर अंग बेचने का प्रस्ताव देखा. फिर मां बाप को बिना बताए वह अस्पताल पहुंचा और अस्पताल ने भी कानून को ताक पर रखकर 3,392 डॉलर में उसकी किडनी खरीद ली. इस पैसे से किशोर ने एक आईपैड-2 और लैपटॉप खरीदा. मां बाप हैरान हुए कि 17 साल के लिटिल झेंग के पास यह चीजें आईं कहां से. तभी मां ने उसके पेट पर सर्जरी से हुआ लाल निशान देखा. सख्ती से पूछने पर पता चला कि नई तकनीक के चक्कर में झेंग ने अपनी किडनी बेच दी.

पिछड़ते बच्चे

Aids-Waisen in Kambodscha
तस्वीर: picture-alliance/dpa/dpaweb

यह खबर सिर्फ चीन नहीं बल्कि दुनिया भर के मीडिया में छाई है. चिंता इस बात को लेकर हो रही है कि क्या नए मोबाइल, टच पैड या फिर लैपटॉपों के जरिए बाजार बच्चों को तकनीक की अंधी दुनिया में समय से पहले खींच रहा है. दिल्ली के जीटीबी अस्पताल के डिपार्टमेंट ऑफ क्लीनिकल साइकोलॉजी के हेड डॉक्टर तेज बहादुर सिंह कहते हैं, "पढ़ाई लिखाई में पिछड़ने की घटनाएं अब ज्यादा तेजी से आ रही हैं. बच्चे चतुर जरूर हो रहे हैं लेकिन पढ़ाई लिखाई में पिछड़ रहे हैं. मोबाइल फोन, आईपॉड और टैबलेट जैसी चीजें उनका ध्यान भटका रही हैं. अच्छे घरों के बच्चे भी पढ़ाई में कमजोर पड़ रहे हैं."

भारत के बड़े शहरों के स्कूली बच्चों के पास ही आजकल नए से नया मोबाइल रहता है. एक बच्चे के हाथ में नया मोबाइल आते ही दूसरे बच्चों के मन में भी उसे पाने की ख्वाहिश पैदा हो जाती है. मनोचिकित्सक डॉक्टर तेज बहादुर सिंह कहते हैं, "जब बच्चों की जिद पूरी नहीं हो रही है तो वे अवसाद का शिकार बन रहे हैं. जिद दिखाती है कि उनमें आत्मनियंत्रण की कमी है. इसमें गलती मां बाप की भी है. उनके पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है. वह किसी तरह इन मशीनों के जरिए बच्चे को खुश रखने की कोशिश करने लगे हैं, यह एक तरह से पल्ला छुड़ाने वाली बात है."

मनोरोगी होते बच्चे

ऐसा नहीं है कि मार्केटिंग कंपनियों या विज्ञापनों की वजह से ऐसे हालात पैदा हो रहे हैं. बच्चे बड़ों या अपने आसपास के माहौल को देखते हुए हर चीज बड़ी तेजी से सीखते हैं. माहौल उनके लिए आर्कषक विज्ञापन का काम करता है. छोटे परिवारों में हर वक्त अपने व्यस्क मां बाप के साथ रहने की वजह से भी बच्चों में बड़ों जैसा व्यवहार करने की ललक उठती है. ऐसे बच्चों से भरे भविष्य के बारे में डॉ. सिंह कहते हैं, "बच्चे और युवा बहुत तेजी से मानसिक रोगी बनते जा रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कह चुका है कि 2020 तक सबसे ज्यादा लोग मानसिक बीमारियों के रोगी होंगे. इनमें युवाओं की तादाद सबसे ज्यादा होगी. तब कार्यक्षमता पर भी इसके गंभीर परिणाम पड़ेंगे."

रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी

संपादन: उभ