पुकारना है तो नाम न लो, गाना गाओ
९ अगस्त २०१०हर बच्चे के लिए एक गाना होता है. मनु के लिए गाना, सलोनी के लिए दूसरा तो सुहास के लिए तीसरा. कई पीढ़ियों से ये परंपरा चली आ रही है. मेघालय के पूर्वी जिले खासी हिल का गांव है कांगथांग, शिलांग से 60 किलोमीटर पर. यहां के बच्चों के नाम चिड़ियों की चहचहाहट के जैसे होते हैं. ये नाम बच्चों की पैदाइश के समय उन्हें दिए जाते हैं और उन्हें जिंगरावी लॉबाइस कहा जाता है. ये लोरियां होती हैं.
इस गांव में 500 ऐसे गाने हैं और ये मां से बच्चों को मिलते हैं. ये सिर्फ मौखिक हैं, इन्हें कहीं लिखा नहीं जाता और ये हर घर में अलग अलग हैं. अगर एक घर में 10 बच्चे हैं तो दसों के लिए अलग अलग गाना होगा.
ऐसा नहीं है कि इन बच्चों के सामान्य नाम नहीं होते. वो नाम भी दिए जाते हैं दुनिया उन्हें उस नाम से जान सकती है लेकिन माएं उन्हें गाना गा कर ही बुलाती हैं. दूसरे लोग भी उन्हें बुलाने के लिए इस गाने का इस्तेमाल कर सकते हैं.
इस परंपरा में पले बढ़े कॉलेज के छात्र रोथेल खोंगिस्त कहते हैं, "जब हम ये छोटा सा गीत सुनते हैं तो तुरंत पहचान जाते हैं." खोंगिस्त ने पहचान का गीत इस परंपरा को अपने शिलांग के कॉलेज में भी मशहूर कर दिया है.
माना जाता है कि घने जंगल में अगर कोई बच्चा खो जाए या फिर भरे बाजार में. इस गीत को सुनते ही वह आ सकता है. गांव के शिक्षक इस्सोवेल खोंगिस्त कहते हैं, "हम अगर शिलांग जैसे भीड़ वाले इलाके में जाते हैं तो अक्सर बच्चे इधर उधर हो जाते हैं. लेकिन जब वे अपने नाम वाला गीत सुनते हैं तो तुरंत लौट आते हैं."
ये सब कुछ इतना रामोंटिक नहीं है कि हम सोचने लगे कि फिर तो लड़की किसी लड़के के लिए या पत्नी अपने पति के लिए इस तरह का गीत इस्तेमाल करती होगी. प्रेमी प्रेमिका के लिए इस तरह के म्यूजिकल नेम इस्तमाल करने की इजाजत नहीं है. ये गाने वाले नाम इतने मशहूर हुए हैं कि अब जर्मनी, जापान, अमेरिका के लोग इस परंपरा को समझने के लिए गांव में आते हैं. ये परंपरा किसी दूसरे गांवों में रहने वाली खासी जाति के लोगों में नहीं है ये सिर्फ इसी गांव कांगथांग की खासियत हैं.
रिपोर्टः पीटीआई/आभा एम
संपादनः ए जमाल