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फहीम दश्तीः प्रेस स्वतंत्रता की मजबूत आवाज

३ अगस्त २०११

आलोचना करने में फहीम दश्ती को कोई डर नहीं है. तालिबान के खिलाफ लड़ने वाले और प्रेस की आजादी के लिए आवाज उठाने वाले अखबार के प्रकाशक दश्ती अफगानिस्तान में एक मशहूर व्यक्ति हैं.

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फहीम दश्तीतस्वीर: DW / M. Gerner

बहुत से अफगानियों के लिए 11 सितंबर नहीं बल्कि 9 सितंबर 2001 एक यादगार दिन था. क्योंकि इस दिन अल कायदा ने अफगानिस्तान के जाने माने विद्रोही नेता अहमद शाह मसूद पर हमला किया. वह नॉर्थ अलायंस के रणनैतिक प्रमुख के रूप में देश के उस हिस्से को बचाने की कोशिश कर रहे थे जिस पर तालिबान तब तक कब्जा नहीं कर पाया था. इस हमले के समय फहीम दश्ती भी शामिल थे. 38 वर्षीय दश्ती याद करते हैं, "मैं उन लोगों के पास बैठा हुआ था जिनके पास विस्फोटक था. मसूद के घेरे बैठे लोगों में दश्ती और दो अन्य पत्रकार थे. कुछ ही सेकंड बाद पता पड़ा कि वे वेष बदले आतंकी थे. मैं उन दोनों के पीछे बैठा हुआ था जबकि विस्फोटक आगे की ओर फटा.

Fahim Dashty Afghanistan Portrait 9 11 Flash-Galerie
तालिबान के खिलाफ लड़ने वाले और पत्रकार फहीम दश्तीतस्वीर: DW/M.Gerner

सितंबर में अहम दिन

अल कायदा के निर्देश पर काम कर रहे दोनों पत्रकारों ने एक कैमरे में छुपे विस्फोटकों को उड़ा दिया. वहां बैठे कुछ लोग तो तुरंत मारे गए. तालिबान और रूसी कब्जे के खिलाफ लड़ने वाले करिश्माई नेता अहमद शाह मसूद भी मारे गए. दश्ती उस दिन की याद करते हुए कहते हैं, "वैसे तो मुझे ही हमले का पहला शिकार होना चाहिए था. मैं उन दोनों से आधा मीटर पीछे ही बैठा हुआ था, जबकि मसूद और दूसरे दो तीन मीटर दूर थे." लेकिन दश्ती बाल बाल बच गए. सारा शरीर झुलस गया. शरीर के घाव तो समय के साथ भर गए लेकिन मसूद की मौत उनके जीवन में गहरा खालीपन छोड़ गई है.

मसूद के साथ दश्ती एक साझा स्वदेश के कारण जुड़े हुए हैं. दोनों पंजीर घाटी के हैं जो रूसी कब्जे के खिलाफ विरोध का ऐतिहासिक गढ़ था. रूसी सेना को यहां लोहे के चने चबाने पड़े थे. अब भी घाटी के किनारों पर कबाड़ पड़े टैंक दिखते हैं. रेड आर्मी ने सात बार हवाई और जमीनी हमले किए. लेकिन घाटी पर पूरा कब्जा नहीं कर पाई. दश्ती अपने आदर्श मसूद के बारे में बताते हैं, "यह उनका योगदान था."

हाइ स्कूल के दिनों में दश्ती मसूद के लड़ाकों में शामिल होना चाहते थे. लेकिन उन्होंने दश्ती को वापस काबुल भेज दिया. उन्हें पहले अपना स्कूल पूरा करना था. जैसे ही उन्होंने पढ़ाई पूरी की, मसूद पर दस्तावेज बना रही एक फिल्म टीम के साथ रिपोर्टर के तौर पर मुजाहिदीन को देखा. उन्हीं दिनों 1993 में काबुल वीकली की स्थापना हुई जो मसूद की पार्टी का साप्ताहिक अखबार था. दश्ती पत्रकारिता के शुरुआती दिनों की याद करते हुए कहते हैं, "हमेशा युद्ध, धमाके, और लोग जिंहोंने मेरी आंखों के सामने दम तोड़ा. लेकिन मैं युवा था. मेरे लिए इसकी रिपोर्टिंग करना मेरा काम था."

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अपने बेटे के साथ दश्तीतस्वीर: DW/M.Gerner

मीडिया की स्वतंत्रता की कीमत

2002 में दश्ती ने काबुल वीकली फिर से शुरू किया. तालिबान दौर में यह अखबार युद्ध के कारण प्रकाशित नहीं हो पाया था. शुरुआत में विदेशों से काफी आर्थिक सहायता आई. दश्ती शुरू से ही करजई सरकार के आलोचक रहे हैं. उनका मानना है कि राष्ट्रपति हामिद करजई अफगानी कबायली नियमों के हिसाब से फैसले लेते हैं, लोकतांत्रिक आधार पर नहीं. इस आलोचना के नतीजे भी फहीम दश्ती को भुगतने पड़ते हैं. वे कहते हैं, "एक दिन सरकार से एक अहम व्यक्ति ने मुझे संकेत दिया. उसने कहा, "ऐसा हो सकता है कि तुम्हारी कार का एक्सीडेंट हो जाए." उन्हें मारने की योजना को दश्ती गंभीरता से नहीं लेते.
2009
का साल चुनाव का था. 10 लाख से ज्यादा फर्जी मतदान हुए. काबुल वीकली ने भी चुनाव में हुई धांधली की आलोचना की. एक ऐसा रुख जिसका नतीजा उन्हें भुगतना ही था. "करजई के चुनाव अभियान का समर्थन करने वाली कुछ कंपनियां हमें विज्ञापन देती थीं. जब उन्होंने देखा कि हम आलोचनात्मक रिपोर्टिंग कर रहे हैं तो उन्होंने अपने ठेके वापस ले लिए." विज्ञापन कम होने के बावजूद दश्ती अपने अखबार को मार्च 2011 तक चलाने में सफल रहे. उसके बाद उन्हें अखबार बंद करना पड़ा. नया मीडिया परिवेश उन्हें गड्ढों से भरा दिखाई देता है. दश्ती खुद को हिंदूकुश में नव उदारवादी बाजार अर्थव्यवस्था का शिकार मानते हैं.

सैनिकों के हटने के बाद अनिश्चित भविष्य

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काबुल वीकली के ऑफिस में फहीम दश्तीतस्वीर: privat/Dashty

अफगानिस्तान में पश्चिम के सैन्य अभियान में वे फिर भी काफी फायदा देखते हैं. "हमारे 5 हजार साल के इतिहास में पहली बार अफगान अपनी भूमि पर विदेशी उपस्थिति को स्वीकार कर रहे हैं." मिकोरायोन में दश्ती अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ सोवियत दौर में बने घरों में रहते हैं. इस कॉलोनी को पसंद किया जाता है क्योंकि घरों में हीटिंग प्रणाली है. उन्होंने मसूद के कुछ फोटो खोज निकाले हैं. अपने आदर्श पुरुष के बारे में वह हमेशा अच्छी बातें कहते हैं.लेकिन काबुल के लोगों के एक हिस्से के लिए मसूद 90 के दशक की शुरुआत में बम धमाकों और बहुत सी मौतों के लिए भी जिम्मेदार हैं, जब काबुल में मुजाहिदीन गुटों के बीच आपस में लड़ाई हो रही थी.
अभी के हालात पर दश्ती को संशय है. उनका कहना है कि तालिबान के साथ समझौता या बातचीत नहीं की जा सकती. वे 2014 तक अंतरराष्ट्रीय सेना की वापसी के भी आलोचक हैं. "अगर सिर्फ पहले से तय टाइम टेबल की बात है तो हम एक गलती कर रहे हैं." विदेशी सैनिकों की तेज वापसी के खिलाफ उनकी चेतावनी थोड़ी झुंझलाहट भरी लगती है. "हम अफगानियों को कोई ज्यादा बड़ी कीमत नहीं चुकानी होगी क्योंकि हमारे पास एक दो स्कूलों और अस्पतालों के अलावा खोने के लिए कुछ भी नहीं है, और कुछ एक जीवन." पिछले 30 साल में अफगानिस्तान में 20 लाख लोगों की जानें गई है. दश्ती कहते हैं, "अगर अफगानिस्तान में यह युद्ध सफलतापूर्वक खत्म नहीं किया जाता है तो आपको कल यह लड़ाई बर्लिन में करनी होगी. पेरिस, लंदन, मैड्रिड और अमेरिका में लड़नी होगी."

रिपोर्टः मार्टिन गैर्नर/आभा एम

संपादनः आभा एम

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