बच्चे-बच्चे के मन में मलाला
२७ अक्टूबर २०१२अब पाकिस्तान के बच्चे-बच्चे के मन में एक मलाला पैदा हो चुकी है. गरीबी और आतंकवाद की समस्या के बावजूद पाकिस्तान की लड़कियां पढ़ना चाहती हैं. एक छात्रा सबा रियाज कहती हैं, "दुख होता है कि तालिबान स्कूल ढहा रहे है. लेकिन मलाला ने हम सबको शिक्षा के लिए संघर्ष करने का साहस दिया है." कुछ इसी तरह की सोच सबा की दोस्त रजिया खान की भी है. वो कहती हैं, "इस तरह के हमलों से लड़कियां कभी नहीं डरेंगी. किसी भी सूरत में हम अपनी पढ़ाई जारी रखेंगे."
सरकार उदासीन
पाकिस्तान में पढ़ाई लिखाई का दुश्मन केवल तालिबान ही नहीं है. सरकार का रवैया भी ठीक नहीं. यूनिसेफ के मुताबिक पाकिस्तान की सरकार जीडीपी का 2.5 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शिक्षा के मद में खर्च करती है. पूरी दुनिया में सिर्फ 9 देश ही ऐसे हैं जो शिक्षा के मद में खर्च करने के मामले में पाकिस्तान से भी पीछे हैं.
सरकारी उदासीनता का असर पाकिस्तान में साक्षरता आंकड़ों पर दिखाई देता है. यहां साक्षरता महज 58 फीसदी ही है. महिलाओं की हालत तो और भी खराब है. आधे से भी कम महिलाएं पढ़ और लिख पाती हैं. पाकिस्तान की सरकार सुरक्षा पर जितना खर्च करती है वो शिक्षा के मुकाबले 10 गुना ज्यादा है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के मुताबिक 184 देशों में साक्षरता में पाकिस्तान का स्थान 159वां है.
हाल ही में पाकिस्तान के बारे में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि वहां के करीब 51 लाख बच्चे पढ़ाई लिखाई की सुविधा से महरूम हैं. इसमें भी महिलाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. पाकिस्तान की 63 प्रतिशत महिलाएं पढ़ाई लिखाई की सुविधा से वंचित हैं.
एक सरकारी सर्वे के मुताबिक शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों के साथ पूरे देश में भेदभाव होता है लेकिन खैबर पख्तूनवाह में ये बहुत ज्यादा है. कोहिस्तान प्रांत में महज 6 फीसदी लड़कियां ही स्कूल जाती हैं. बलूचिस्तान के डेरा बुगटी इलाके में भी हालत कमोबेश ऐसे ही है. यहां 1 प्रतिशत से भी कम लड़कियां पढ़ने लिखने की सुविधा पाती हैं.
गरीबी की मार
पाकिस्तान में लड़कियों की पढ़ाई लिखाई में गरीबी भी एक बडी़ बाधा है. कुल जनसंख्या का पांचवां हिस्सा गरीब है. ये सरकारी आंकड़ा है. हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि वास्तव में ये आंकड़ा 30 फीसदी के आसपास है. कराची उर्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तौसीफ अहमद खान कहते हैं," लोग गरीब हो रहे हैं. गरीबी हमें और भी अशिक्षित बना रही है. गरीबी और अशिक्षा की मार सबसे ज्यादा लड़कियों पर ही पड़ती है."
पाकिस्तान के संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है. लेकिन गरीब परिवारों के लिए बच्चे को स्कूल भेजने का मतलब है कमाई करने वाले एक हाथ की कमी. स्वतंत्र मानवाधिकार आयोग की प्रमुख जोहरा यूसुफ कहती हैं, "ज्यादातर परिवार यही सोचते हैं कि लड़कियों को पढ़ाना यानि पैसा बरबाद करना है. इससे ज्यादा अच्छा है कि जो पैसा उनकी पढ़ाई पर खर्च किया जाए उसे शादी के लिए बचाकर रख लिया जाए. "
पाकिस्तान में ज्यादातर लड़कियां इसलिए कम उम्र में ही पढ़ना छोड़ देती हैं क्योंकि उन्हें अपने मां बाप के काम में हाथ बंटाना होता है. ऐसे माता पिता भी हैं जो अपने बच्चों को मलाला की तरह पढ़ाना लिखना चाहते हैं. चार बच्चों की मां, 32 साल की अजरा शब्बीर कहती हैं, "जब मैं 14 साल की थी तभी मेरे पिता ने मेरी शादी कर दी थी और मेरी पढ़ाई लिखाई छुड़वा दी थी. मेरी दो लड़कियां हैं और वो दोनों मेरे लड़कों की ही तरह कॉलेज में पढ़ाई कर रही हैं. मैं उन्हें शिक्षित देखना चाहती हूं. हमारी गरीबी हमें तालिबान की ही तरह मारती है लेकिन हम इसके खिलाफ लड़ सकते हैं जैसे कि मलाला ने किया."
ठीक है मलाला
मलाला के सिर में 9 अक्टूबर को तालिबान ने उस वक्त गोली मार दी थी जब वो स्कूल से घर जा रही थी. फिलहाल, ब्रिटेन के एक अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है और उसकी सेहत में भी सुधार हो रहा है. तालिबान लड़कियों की पढ़ाई लिखाई के लिए मलाला के संघर्ष से नाराज थे. गोली मारने से पहले मलाला को कई बार चेतावनी दी जा चुकी थी.
मलाला को गोली मारने के बाद से तालिबान ने मिंगोरा इलाके के चार स्कूलों को भी ढहा दिया है. प्रांतीय सरकार का कहना है कि पढ़ाई लिखाई के खिलाफ तालिबान की मुहिम से 7 लाख बच्चे प्रभावित हुए हैं. हालांकि स्कूलों पर तालिबान के हमले में हताहत होने वाले बच्चों की संख्या काफी कम है क्योंकि ज्यादातर रात को ही स्कूलों में ही हमले किए जाते हैं.
प्रांतीय सूचना मंत्री इफ्तिकार हुसैन कहते है,"तालिबान मुख्य रूप से लड़कियों के स्कूल को निशाना बनाते हैं. इस्लामी शिक्षा के मुताबिक तालिबान बच्चों और शिक्षकों को घर पर ही रहने का आदेश दिया है." पेशावर की इस्लामिया कॉलेजगेट गर्ल्स हाई स्कूल में पढ़ाने वाली नसीम बेगम कहती हैं,"मलाला पर तालिबान के हमले ने बच्चों के माता पिता के दिल में दहशत पैदा कर दी है."
मलाला पहली बार सुर्खियों में तब आई जब उसने 2007 से लेकर 2009 तक बीबीसी के लिए ब्लॉग लिखना शुरु किया. मलाला अपने ब्लॉग में तालिबान के साये में जिंदगी बिताने वाली पाकिस्तानी लड़की की कहानी लिखती थी.
वीडी/एनआर (एएफपी)