बांग्लादेश में मरती भाषाएं
२१ मई २०१२बांग्लादेश में 30 से अधिक भाषाओं को मान्यता प्राप्त है. जानकारों का मानना है कि इन में से कम से कम 20 धीरे धीरे गायब हो रही हैं. अधिकतर भाषाओं की कोई लिपि नहीं है और यह एक बड़ी वजह है कि इन्हें संभाल कर नहीं रखा जा रहा. लोक गीतों, कहानियों और बोलियों के जरिए इन भाषाओं को सालों से जिंदा रखा गया है. लेकिन देश में आ रहे आर्थिक बदलाव और बदलती जीवन शैली लोगों को इन लोक भाषाओं से दूर करती जा रही है.
मिसाल के तौर पर देश के सुदूर उत्तर पश्चिम में पात्र आदिवासी लालेंग भाषा का इस्तेमाल करते हैं. यह भाषा मुश्किल से 2000 लोग बोलते हैं. इनके प्रमुख लक्ष्मण लाल पात्र मुस्कुराते हुए वह लोरी याद करते हैं जो बचपन में उनकी मां सुनाया करती थी, लेकिन लोरी के शब्दों को याद करना 70 साल के पात्र के लिए बेहद मुश्किल है, "हमारी परिकथाएं, कविताएं और गीत मर रहे हैं क्योंकि हमारे पास इन्हें बचा कर रखने के लिए कोई लिपि नहीं है. मेरी बहू भी इन दिनों मेरे पोते को सुलाने के लिए बांग्ला में लोरी सुनाती है."
बांग्ला से प्रेम
बांग्लादेश के करीब 95 फीसदी लोग बांग्ला बोलते हैं. दफ्तरों का काम भी बांग्ला में होता है और पढ़ाई लिखाई भी इसी भाषा में होती है. हालांकि नए जमाने के टीवी कार्यक्रमों में अकसर अंग्रेजी या कई बार हिंदी शब्दों का इस्तेमाल भी होने लगा है. पर इसके बाद टीवी चैनलों को खास निर्देश दिए गए कि भाषा के साथ छेड़ छाड़ न की जाए. भारत के विपरीत अब इन कार्यक्रमों में या फिल्मों में केवल बांग्ला का ही प्रयोग किया जाता है.
लोगों के बांग्ला प्रेम के लिए इतिहास को समझना जरूरी है. 21 फरवरी 1952 को देश में युवायों ने भाषा बचाने के लिए अपनी जान दी. उस समय बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था. पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को कामकाजी भाषा बनाने का एलान किया, जिसके खिलाफ लोगों ने प्रदर्शन किया. इस दौरान कुछ युवाओं की जान गई. इसके बाद से देश में क्रांति शुरू हुई और 1971 में बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हो गया. 21 फरवरी यहां शहीदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है. यूनेस्को ने भी इसे अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का ओहदा दिया है.
लेकिन बांग्ला से यह प्रेम स्थानीय भाषाओं के लिए भारी पड़ रहा है. स्कूल, कॉलेज और दफ्तर में लोग बांग्ला बोलना पसंद करते हैं. पात्र बताते हैं, "हम में से अधिकतर लोग आज भी लेलांग में बात कर सकते हैं. लेकिन हम बांग्ला की ओर बढ़ रहे हैं, सबसे जरूरी लेलांग शब्दों का प्रयोग करना भी हमने छोड़ दिया है. बच्चे स्कूल में या आस पड़ोस से बांग्ला के शब्द सीखते हैं और फिर उसे कभी भूलते नहीं हैं."
'सांस्कृतिक संहार'
ढाका यूनिवर्सिटी के भाषा विशेषज्ञ शौरव शिकदर ने 2011 में अपनी किताब 'इंडीजीनस लैंग्वेजेज ऑफ बांग्लादेश' में इसी समस्या को दर्शाया. बांगला के अन्य भाषाओं पर बुरे असर के बारे में वह कहते हैं, "अब कोई महाली, मालतो, राजोयर और राजबंग्शी में बात नहीं करता." शिकदर के अनुसार केवल दो कबायली भाषाओं को बचाया जा सकता है और वह इसलिए कि उन दोनों की अलग लिपि है.
स्थानीय भाषाओं पर काम करने वाले मिस्बाह कमाल का कहना है कि भाषाओं का मर जाना 'सांस्कृतिक जातिसंहार' जैसा है, "हम अपने सांस्कृतिक जीवन में विविधता को खो रहे हैं और इस से असहिष्णुता बढ़ेगी." वह कहते हैं, "हमारे छात्र अपनी मातृभाषा बचाने के लिए लड़े, आज उन्हीं के कारण हम स्वतंत्र बांग्लादेश में जी रहे हैं. यह शर्म की बात है कि उसी देश में अन्य भाषाएं मर रही हैं."
दूसरी ओर सरकार इन बातों से इनकार करती है. 2001 में देश में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई. लेकिन जानकारों का मानना है कि यह सिर्फ खानापूर्ती है. पात्र जैसे लोग सच्चाई से खुश नहीं हैं, "मेरी खूबसूरत भाषा मर रही है. हमारे युवा ने इससे मुंह मोड़ लिया है. उनके लिए नौकरी और पढ़ाई ही सब कुछ है."
आईबी/एजेए (एएफपी)