बेटियों की हत्या करता सुपर पॉवर भारत
२१ अप्रैल २०१२लेकिन नहीं, अपनी मां के जाए और पत्नी पर परिवार बढ़ाने के लिए निर्भर पुरुष नहीं सोचते कि जितने पुरुष जरूरी हैं उतनी ही महिलाएं भी. हालत और खराब हो जाती है जब घर की महिलाएं ही कन्या भ्रूण या फिर नवजात बच्चियों की जानी दुश्मन बन जाती हैं. हाल के सालों में स्थिति इतनी खराब हो गई है कि संयुक्त राष्ट्र की रैंकिंग में भारत बच्चियों के लिए सबसे खतरनाक देशों में शामिल हो गया है.
अभी की ही बात है हरियाणा के झज्जर में रहने वाले 30 साल के कारपेंटर मुकेश का अपनी पत्नी के साथ किसी बात पर झगड़ा हुआ. गुस्सा दिमाग में ऐसा चढ़ा कि अपनी तीन बेटियों को उसने पंखे से लटकाया और बांस से बुरी तरह पीट दिया.चार साल की जिया को बुरी तरह चोट आई. सात साल की पायल और तीन साल की वर्षा गंभीर स्थिति में है.
इससे पहले तीन महीने की आफरीन को उसके पिता उमर फारुक ने इतना पीटा कि वह मर गई. क्यों क्योंकि उमर फारुक को बेटी नहीं बेटा चाहिए था. आफरीन के शरीर पर जगह जगह चोटें थी और उसकी गर्दन डिसलोकेट हो गई थी.
दुनिया के सबसे ज्यादा आईटी एक्सपर्ट पैदा करने वाले, अग्नि 5 की टीम में शामिल महिला वैज्ञानिक टेसी थॉमस के देश में लड़कियों का मारा जाना नई बात नही हैं. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली डोना फर्नांडिस कहती हैं, "भारत जैसे देशों में पति के घर में महिला की जगह उसके दहेज की रकम से निर्धारित होती है. इसलिए महिलाएं हमारे समाज में अवांछित हैं. वे कहती हैं कि भारत में एक तरह का नारी संहार चल रहा है."
फर्नांडिस कहती हैं कि कुछ परंपराएं तो समाज में ऐसी रच बस गई हैं कि उनसे बाहर निकलना असंभव जान पड़ता है. सामाजिक कार्यकर्ता और वकील सीमा मिश्रा बताती हैं, "हमें सिर्फ वही मामले पता हैं जिनकी रिपोर्टिंग होती है. सैंकड़ों मामले ऐसे हैं जो कहीं दर्ज ही नहीं होते. इसमें भ्रूण हत्या शामिल है."
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि बच्चियों के लिए भारत सबसे खतरनाक देशों में एक है. संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग ने फरवरी में बताया कि भारत में एक से पांच साल के बीच की लड़की के मरने आशंका एक लड़के की तुलना में पचहत्तर फीसदी ज्यादा है. भारत में बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था क्राइ का अंदाजा है कि देश में हर साल एक करोड़ बीस लाख बच्चियां पैदा होती हैं लेकिन इसमें दस लाख एक साल के अंदर ही मर जाती हैं.
कहा जाता है कि पढ़ाई से दिमाग खुलता है लेकिन बच्चियों की हत्या रोकने में इसका कोई उपयोग नहीं होता क्योंकि आंकड़े कहते हैं कि शहरों में, पढ़े लिखे परिवारों में भी लड़की पैदा न हो जाए इसका पूरा बंदोबस्त किया जाता है. डॉक्टर अनूप सक्सेना कहते हैं कि अल्ट्रासाउंड के जरिए वैसे तो लिंग पहचान करने पर भारत में रोक है "लेकिन यह काम हर जगह होता है. यह भारत में एक बड़ा धंधा है."
चाइल्ड कांउसलर रवीना कौर कहती हैं कि आर्थिक कारणों के अलावा लोगों के रवैये में भी बदलाव की जरूरत है तब ही बच्चियों की हत्या रुक सकती है. "लोग मानते हैं कि लड़कियां बोझ होती हैं क्या यह सोच कभी बदलेगी. यह तब ही बदल सकती है अगर आपके विचार करने का तरीका बदले."
रिपोर्टः मुरली कृष्णन / आभा मोंढे
संपादनः निखिल रंजन