20 फीसदी आबादी के लिए 80 फीसदी संसाधन
१५ सितम्बर २०११पहले से कहीं ज्यादा लोगों को आज तेजी से हो रहे विकास और उत्पादन की वजह से पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव के बारे में अधिक जानकारी है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम(यूएनईपी) चेतावनी देती है कि अगर ऐसे ही उपभोक्ताओं की आदतों में वर्तमान दर से विकास होता रहा तो हमारी खपत की दर साल 2050 तक तिगुना हो जाएगी. अगर स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो इसका मतलब यह है कि विश्व के पास उस तरह की खपत के लिए संसाधन नहीं होंगे.
खपत के अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से संसाधन पर असर पड़ेगा. जानकारों का मानना है कि विश्व के गरीब इन बदलावों की वजह से चपेट में आएंगे. संयुक्त राष्ट्र ने साल 2000 में सहस्राब्दी विकास लक्ष्य बनाए थे. इसके तहत विश्व के पिछड़े इलाकों में गरीबी हटाने और 2015 तक निरंतरता को बढ़ावा देना है. लेकिन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सिर्फ 4 साल ही बचे हैं. उनमें से कई लक्ष्य अभी भी अधूरे नजर आ रहे हैं.
आर्थिक विकास पर सवाल !
सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के प्रोफेसर मोहन मुनासिंघे के मुताबिक, "मानव उपभोग, जो आधुनिक अर्थव्यवस्था को चला रहे हैं उसका निर्माण गैर टिकाऊ उपभोग, उत्पादन और संसाधन खोज पर हुआ है. वर्तमान में विश्व को आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण के जोखिम का सामना करना पड़ रहा है. कुछ लोग तत्काल लाभ का आनंद ले रहे हैं जबकि एक बड़ी आबादी को भविष्य में इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. इन खतरों से तत्काल और एकीकृत होकर नहीं निपटा जाता है तो यह अनर्थकारी रूप ले सकते हैं."
मुनासिंघे आने वाले समय में गरीबी, खाने की कमी और सबसे ज्यादा जलवायु परिवर्तन के कारण "ग्लोबल ब्रेकडाउन" के खतरे को देखते हैं. उनके मुताबिक राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण प्रगति धीमी गति से हो रही है.
मुनासिंघे कहते हैं, " मुझे लगता है कि हमें और समाज को कड़े कदम उठाने होंगे. अगर हम इसी रवैया से अपना काम करते रहे जैसे अभी कर रहे हैं. तो ग्रीन हाउस गैस दो से तीन गुना बढ़ जाएंगे और समुद्र का स्तर भी बढ़ जाएगा. तापमान में भी तेजी आएगी. उनके मुताबिक विकसित देशों को बदलते समय में अहम भूमिका निभानी होंगी और अपनी खपत की आदतों को सुधारना होगा.
गरीबों का क्या होगा ?
नॉर्वे की हेडमार्क यूनिवर्सिटी की डॉक्टर विक्टोरिया डब्ल्यू थॉरसन कहती हैं, "सिर्फ आर्थिक विकास से गरीबी नहीं खत्म होगी. इसके विपरीत यह भेदभाव, असुरक्षा और अपराध को बढ़ावा देती है.
अमेरिका की क्लार्क यूनिवर्सिटी के जॉर्ज पर्किन्स मार्श इंस्टीट्यूट में रिसर्च प्रोफेसर डॉक्टर फिलिप जे वर्ग्राट को लगता है पश्चिमी उपभोक्ताओं को अपने लाइफस्टाइल और आदतों में बदलाव करना चाहिए. लेकिन वह यह भी मानते हैं पश्चिमी उपभोक्ताओं की आदतों में बदलाव लाना आसान नहीं. उनके मुताबिक समस्या प्रणालीगत प्रकृति से हैं.
वह कहते हैं, "चीजों के उत्पादन के बारे में समस्या है. यह अधिनियम का एक मुद्दा है. यह संस्कृति का एक मुद्दा है. मेरे पड़ोसी क्या कहेंगे. सवाल स्टेटस सिंबल का है. इसलिए यहां पर सांस्कृतिक, आर्थिक मुद्दे हैं. आज कल यह बहस होती है कि क्या हमें सच में विकास के टिकाऊ हालात में आर्थिक विकास की जरूरत है. या फिर आर्थिक विकास ज्यादा टिकाऊ होनी चाहिए. "
रिपोर्टः सारा बेर्निंग / आमिर अंसारी
संपादनः एन रंजन