अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत
४ जून २०११अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इस्लामाबाद के अपने दौरे पर निश्चिंत और आभारी दिखीं. औपचारिक रूप से पाकिस्तान नाराजगी दिखा रहा है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को बताए बिना ही उसकी भूमि पर ओसामा बिन लादेन को मार दिया. दूसरी तरफ अमेरिका इस पर नाराज है कि दुनिया भर खोजा जा रहा ओसामा पाकिस्तान में मिला. लेकिन पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैनिक मदद रोकने पर विचार नहीं हो रहा है, न ही विदेश मंत्री क्लिंटन का दौरा रद्द किया गया है. बर्लिन से प्रकाशित दैनिक टागेस त्साइटुंग लिखता है,
"अमेरिका को अफगानिस्तान में युद्ध को अंत तक पहुंचाने के लिए पाकिस्तान की जरूरत है. और पाकिस्तान अमेरिकी पैसे के बिना दिवालिया हो जाएगा. अमेरिका के लिए समय बीतता जा रहा है. जीत की संभावना से वंचित एक दशक की लड़ाई के बाद एक महीने के अंदर अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी होनी है. लेकिन विद्रोही तालिबान के साथ शांति संधि के बिना नाटो को हिंदुकुश से हटाना संभव नहीं. पाकिस्तान की मदद के बिना भी नहीं, जिसने सालों से महत्वपूर्ण तालिबान नेताओं को पनाह दे रखी है और समर्थन देता है."
ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद अमेरिका और पाकिस्तान के बीच तनाव पर नौए ज्यूरिषर त्साइटुंग ने भी टिप्पणी की है. पाकिस्तानियों का विचार है कि वे आतंकवाद विरोधी संघर्ष में हिस्सेदारी की भारी कीमत चुका रहे हैं. सचमुच 2001 के बाद से हमलों और लड़ाई में 30,00 पाकिस्तानी मारे गए हैं, जिनमें 5,00 सैनिक हैं.
"अपने सहयोग के लिए पाकिस्तान को अमेरिका से पिछले दस सालों में 20 अरब डॉलर मिले हैं. उसमें से दो तिहाई सीधे सेना को गया है. लेकिन वाशिंगटन में इस बीच अधिकारियों का मानना है कि भारी सहायता राशि के बावजूद पाकिस्तानी सेना अधमने ढंग से इस्लामी कट्टरपंथियों पर कार्रवाई कर रही है. इस तथ्य ने कि ओसामा बिन लादेन सालों से इस्लामाबाद से बस 50 किलोमीटर दूर स्थित छावनी नगर में छुपा था, वाशिंगटन में संदेह और गहरा कर दिया है. क्लिंटन कह रही हैं कि राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व की सहभागिता के सबूत नहीं हैं. लेकिन वाशिंगटन में संदेह किया जा रहा है कि कम से कम सेना और खुफिया एजेंसी के कुछ तबकों को आतंकी सरगना के छुपे होने का पता था."
अब नेतृत्व को एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के छुपे होने का पता था या नहीं, पाकिस्तानी दोनों ही स्थितियों को स्वीकार नहीं करते. म्यूनिख से प्रकाशित होने वाले दैनिक ज्युड डॉयचे त्साइटुंग ने टिप्पणी की है कि इसलिए पाकिस्तान की अलोकप्रिय सरकार ने लोगों के बीच अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए वाशिंगटन से दूरी दिखाई है और ताकत का प्रदर्शन किया है.
"आखिरकार राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी किसी भी हालत में नहीं चाहते कि देश के मौजूदा माहौल में उन्हें अमेरिका की कठपुतली कहा जाए. पश्चिमी देशों में भी सवाल उठाया जा रहा है कि दुनिया भर में खोजा जा रहा आतंकी सरगना इतने लंबे समय तक पाकिस्तानी अधिकारियों की नाक के नीचे कैसे छुपा रहा और क्या उसे ऊपर से मदद नहीं मिल रही थी. आतंकवाद विरोधी लड़ाई में पाकिस्तान की वफादारी पर संदेह ने जोर पकड़ लिया. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की क्या भूमिका है? क्या सरकार और आईएसआई एक साथ हैं."
पाकिस्तान के बाद अब भारत. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल के भारत दौरे पर टिप्पणी करते हुए ज्युड डॉयचे त्साइटुंग ने लिखा है कि पहली नजर में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह साधारण व्यक्ति लगते हैं. वे चांसलर के बगल में रुखाई से बैठे हैं और चश्मे के मोटे शीशे से देख रहे हैं. लेकिन बहुत कम ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिनकी अंगेला मैर्केल भारतीय प्रधानमंत्री जितनी प्रशंसा करती हैं.
"वे 79 वर्षीय सिंह के अंतरराष्ट्रीय अनुभव से प्रभावित हैं, जिंहोंने भारत के वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री के रूप में देश को खोलने में योगदान देने से पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में काम किया है. मैर्केल इस बात से प्रभावित होती हैं कि वे एक जटिल समाज में सवा अरब लोगों पर शासन करने की जिम्मेदारी के साथ कैसे पेश आते हैं. और उन्हें उनका अनिच्छुक रवैया पसंद है जिसमें कभी कभी लंबी चुप्पी के बाद वे एक चतुर टिप्पणी कर देते हैं. मनमोहन सिंह में मैर्केल वह बहुत कुछ देखती हैं, जैसा वे स्वयं दिखना चाहती हैं, शांत और व्यावहारिक."
पिछले पूरे सप्ताह मनमोहन सिंह अफ्रीका में थे. पहले अदिस अबेबा में दूसरे भारत अफ्रीका शिखर सम्मेलन के लिए, फिर तंजानिया की राजकीय यात्रा पर. बर्लिन के दैनिक नौएस डॉयचलंड का कहना है कि भारत के नजरिए से सहयोग के तीन पाए हैं: क्षमता विकास यानि मानव संसाधन विकास, विशेषज्ञों का प्रशिक्षण और भारत में शिक्षा की संभावनाएं, अनुभवों और तकनीक का आदान प्रदान तथा व्यापार का विस्तार.
"आखिरकार भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट की अपनी उम्मीदवारी के लिए अफ्रीकी वोट भी चाहिए. दिल्ली का अभियान एकतरफा राह पर नहीं है. भारत का मानना है कि अफ्रीका के लिए उसकी सक्रियता को चीन की प्रतिद्वंद्विता समझना ओछी सोच है. उनमें बहुत बड़ा अंतर है. चीन का अफ्रीका के साथ 120 अरब डॉलर का कारोबार है जबकि भारत का कारोबार 46 अरब डॉलर का है. 2015 तक का उसका लक्ष्य 70 अरब डॉलर का पारस्परिक व्यापार है. दूसरे वहां दोनों के लिए पर्याप्त जगह है."
रिपोर्ट: एजेंसियां/महेश झा
संपादन: ओ सिंह