गायब होती कश्मीर की झीलें
२५ जुलाई २०११कश्मीर की वुलर झील कभी एशिया की सबसे बड़ी मीठे पानी वाली झील हुआ करती थी. सरकार की लापरवाही के कारण इस झील का आकार 204 वर्ग किलोमीटर से घट कर 74 वर्ग किलोमीटर रह गया है. हाल ही में पर्यावरण मंत्रालय का ध्यान वुलर की तरफ गया तो झील को बचाने के लिए प्रोजेक्ट शुरू करने की मंजूरी दी गई और चार अरब रुपयों का बजट भी तैयार किया गया.
दो जून को दिल्ली में हुए एक प्रेस कांफ्रेंस में जयराम रमेश ने कहा, "वुलर को भारी कीमत चुकानी पड़ी है. वुलर एशिया की मीठे पानी वाली सबसे बड़ी झील हुआ करती थी. आज यह केवल जमीन का टुकडा बन कर रह गई है. यहां पानी देखा ही नहीं जा सकता. बस पेड़ ही हैं." एक महीने बाद मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल में रमेश को ग्रामीण विकास मंत्रालय दे दिया गया. अब नए मंत्री को नए सिरे से प्रोजेक्ट शुरू करना है. हालांकि रमेश द्वारा पास किए गए प्रोजेक्ट ने विवाद भी खड़े कर दिए.
गिराए जाएंगे लाखों पेड़
रमेश चाहते थे कि झील पहले जैसी हो जाए. लेकिन करीब बीस लाख पेड़ों की जान के बदले में. प्रोजेक्ट के अनुसार झील के आस पास जो भी पेड़ उगे हैं, उन सबको काट डाला जाए, ताकि झील के नवनिर्माण का काम शुरू किया जा सके. पर्यावरणविद इस पर आपत्ति जता रहे हैं. कश्मीर यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान पढ़ने वाले शाहिद अहमद का कहना है कि यह पैसे की बर्बादी है और पर्यावरण के साथ खिलवाड़, "इससे कोई फायदा नहीं होगा. हम डल लेक पर भी इस तरह का प्रोजेक्ट देख चुके हैं जिसमें पांच लाख पेड़ों को गिराया गया था. अब वहां दोबारा पेड़ उग चुके हैं."
अजीब बात यह है कि जिन पेड़ों को काटने की बात की जा रही है, उन्हें 80 के दशक में खास तौर से कश्मीर के बाढ़ नियंत्रण विभाग के पेड़ लगाओ कार्यक्रम के अंतर्गत लगाया गया था. अहमद कहते हैं कि सरकार ने उस समय आनन फानन में पेड़ तो लगा दिए लेकिन बाद में उन पर ध्यान देना भूल गई, "इन पेड़ों के कारण झील से बाढ़ का खतरा तो कम हो गया लेकिन बाद में इनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गई कि झील का आकार ही छोटा होने लगा. तीन दशकों बाद अब सरकार की नींद खुली है, लेकिन न तो सरकार ने उस समय बाढ़ को रोकने के लिए जानकारों की मदद लेने के बारे में सोचा और न ही अब पेड़ों की बढ़ती संख्या के बारे में जानकारों की मदद लेना चाह रही है."
कश्मीर में केवल वुलर और डल ही नहीं, बल्कि अंचार, नगीन और मानसबल जैसी झीलों का भी भविष्य खतरे में दिख रहा है.
रिपोर्ट: एजेंसियां/ ईशा भाटिया
संपादन: ए जमाल