तालिबानी धमकियों के बीच अफगानिस्तान में लोया जिरगा
१५ नवम्बर २०११तालिबान ने बयान जारी कर चेतावनी दी है कि अगर देश में अमेरिका के स्थायी सैनिक अड्डों की मंजूरी दी गई तो "सख्त सजा" दी जाएगी. तालिबान ने लोया जिरगा को विदेशी दुश्मनों और उनके किराए के सैनिकों की "दुर्भाग्यपूर्ण बैठक" करार दिया है. तालिबान ने इसमें वोट देने वालों को "देशद्रोही" कहा है.
चार दिन तक चलने वाली अफगानिस्तान की लोया जिरगा में करीब 2000 राजनेता, कबायली नेता, प्रांतीय अधिकारी, सांसद और नागरिक समितियों के सदस्य शामिल होंगे. यह देश में नीतियां और कानून बनाने वाली सर्वोच्च समिति है जो सरकार के लिए दिशा निर्धारण का काम करती है. इस बार की जिरगा में अफगानिस्तान और अमेरिका के बीच चल रही रणनीतिक सहयोग पर चर्चा होनी है. अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की 2014 तक वापसी का खाका तैयार करने के साथ ही इस सहयोग के प्रारूप को भी अंतिम रूप दिया जाना है. अमेरिका ने उम्मीद जताई है कि लोया जिरगा में अमेरिका अफगानिस्तान के बीच सहयोग को जारी रखने पर बल दिया जाएगा. अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मार्क टोनर ने पत्रकारों से कहा, "अमेरिका और अफगानिस्तान दो करीबी सहयोगी और हमें पूरा भरोसा है कि इस लोया जिरगा में हमारे मजबूत सहयोग पर फिर से पुष्टि की मुहर लगाई जाएगी."
तालिबान की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि जिरगा, "अफगानिस्तान पर अमेरिका के गैरकानूनी कब्जे को कानूनी रूप देने और उसकी मौजूदगी को स्थायी बनाने का एक तरीका है." तालिबान ने कहा है कि अगर अफगानिस्तान रणनीतिक साझेदारी की "मनहूस योजना" को नहीं रोकता तो देश का भविष्य जापान और दक्षिण कोरिया जैसा होगा. ये दोनों देश "कब्जे में और बुझे" हुए हैं और इन्हें लगातार अमेरिकी सेनाओं के अपराध और अतिक्रमण का दंश झेलना पड़ता है." तालिबान का यह भी कहना है कि देश में सारे विवाद की जड़ विदेशी फौज की मौजूदगी है.
मंगलवार को एक आत्मघाती हमलावर ने जिरगा को निशाना बनाने की कोशिश की लेकिन उसे अफगान पुलिस ने पहले ही मार दिया जिससे वह खुद को नहीं उड़ा सका. लोया जिरगा को देखते हुए काबुल में सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए हैं. हाल के दिनों में यहां तालिबान ने कई हमले किए हैं. रविवार को तालिबान ने एक ईमेल भी भेजा है जिसमें जिरगा के लिए प्रस्तावित सुरक्षा इंतजामों का खाका है. आयोजन स्थल के नक्शों के अलावा खुफिया अधिकारियों के फोन नंबर और दूसरी जानकारियां भी दी गई हैं. हालांकि अधिकारियों ने इस दस्तावेज की सच्चाई से इनकार किया है.
अफगान लोगों के बीच तालिबान के लिए समर्थन में हाल के सालों में लगातार गिरावट आई है. लोग सरकार की शांति बहाल करने की कोशिशों का मजबूती से साथ देने लगे हैं. एक सर्वे में यह बात सामने आई है. इस सर्वे का कुछ खर्च अमेरिकी सरकार ने भी दिया है.
सैन फ्रांसिस्को की एशिया फाउंडेशन के इस सर्वे के मुताबिक लोग असुरक्षा और भ्रष्टाचार से ऊब चुके हैं. इसके साथ ही गरीबी और भ्रष्टाचार ने उनमें निराशा भर दी है. अफगानिस्तान के वयस्क नागरिकों में 82 फीसदी लोग ऐसे हैं जो उग्रवादी गुटों के साथ समझौते और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिशों का समर्थन करते हैं. इसमें कहा गया है कि तालिबान के साथ सहानुभूति रखने वालों की तादाद अब घट कर महज 29 फीसदी रह गई है. पिछले साल ऐसे लोगों की तादाद 40 और 2009 में 56 फीसदी थी.
अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई तालिबान के साथ शांति कायम करने की कोशिश अंतरराष्ट्रीय सहयोग से पिछले कई सालों से कर रहे हैं लेकिन उनकी कोशिशों को तब गहरा धक्का लगा जब इसी साल 20 सितंबर को पूर्व अफगान राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या कर दी गई. रब्बानी अमेरिकी सरकार के समर्थन वाली अफगान सरकार की शांति पहल को अमली जामा पहनाने में जुटे थे. यह सर्वे रब्बानी की हत्या से पहले किया गया.
सर्वे में शामिल लोगों में से 38 फीसदी असुरक्षा को सबसे बड़ी समस्या मानते हैं खासतौर से अफगानिस्तान के दक्षिणी और पूर्वी हिस्से में जहां आतंकवादी अफगान सुरक्षा बलों और अमेरिकी नेतृत्व वाली फौजों से लड़ रहे हैं. सर्वे में शामिल 71 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें अपने ही देश में एक जगह से दूसरी जगह जाने में डर लगता है. हालांकि सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा लागों की राय है कि अफगान सेना और पुलिस पेशेवर तरीके से प्रशिक्षित नहीं लेकिन ऐसे लोगों की तादाद भी बढ़ रही है जो मानते हैं कि वह बेहतर हो रहे हैं. ऐसे लोगों की संख्या में भी गिरावट आई है जो मानते हैं कि बिना विदेशी मदद के भी देश की पुलिस और सुरक्षा बल उनकी हिफाजत कर सकते हैं. अभी भी बहुसंख्यक जनता मानती है कि वे बिना विदेशी मदद के उनकी सुरक्षा नहीं कर सकते.
अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने खरबों डॉलर की रकम 3 लाख अफगानी सुरक्षा बल और पुलिस को प्रशिक्षित करने में खर्च की है. तैयारी यह है कि 2014 तक विदेशी युद्धक सेना वापस लौट जाएगी और केवल सहयोग और प्रशिक्षण देने के लिए नाम मात्र की सेना रहेगी. हालांकि पिछले दिनों हुए लगातार हमलों ने इन आशंकाओं को मजबूत किया है कि अफगानी सेना अपने दम पर सुरक्षा देने में फिलहाल सक्षम नहीं है.
रिपोर्टः डीपीए/एएफपी/एन रंजन
संपादनः वी कुमार