दिल जीतने में लगी पाकिस्तानी सेना
३ फ़रवरी २०१३वजीरिस्तान.. इस जगह का नाम सुनते ही ड्रोन हमलों का ख्याल आता है. पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के इस इलाके में पश्तून और कबायली लोग रहते हैं. लेकिन सीमा पर होने के कारण यह तालिबान का डेरा भी है. हालांकि अमेरिकी हमलों और पाकिस्तानी सेना की कोशिशों के कारण दक्षिणी वजीरिस्तान को तालिबान से छुड़वाने में सफलता मिली है. उत्तरी और उत्तर पूर्वी वजीरिस्तान अब भी तालिबान की चपेट में है.
सेना की अब कोशिश है कि दक्षिणी वजीरिस्तान को एक बार फिर यहां के लोगों के लिए रहने लायक बनाया जाए और उनके पास सभी मूलभूत सुविधाएं भी हों. इसके लिए एक अभियान की शुरुआत की गयी है जिसका नाम हैं व्हैम (डब्ल्यूएचएएम) या फिर 'विनिंग हार्ट्स एंड माइंड्स'. इस अभियान के तहत पाकिस्तानी सेना वजीरिस्तान में लोगों का दिल जीतने में लगी है.
सेना पश्तून लोगों से बात कर रही है, उन्हें अपने अभियान का मकसद समझा रही है और बता रही है कि इस से उन्हें किस तरह से फायदा होगा. व्हैम के तहत वजीरिस्तान में स्कूल और कॉलेज बनाए जा रहे हैं, नई सड़कें बन रही हैं. जो लोग तालिबान के हमलों के कारण इस जगह को छोड़ कर चले गए थे, उन तक यह संदेश भेजा जा रहा है कि वे अपने घर लौट सकते हैं और सेना के साथ वे सुरक्षित हाथों में हैं.
कोई तरक्की नहीं
लेकिन सेना के रास्ते में अड़चनें भी कम नहीं है. तालिबान और अल कायदा का खतरा तो है ही, साथ ही नागरिक प्रशासन की कमी भी खलती है और भ्रष्टाचार से भी जंग लड़नी है. यह इलाका करीब बेल्जियम के आकार का है और कहा जा सकता है कि आज भी यह वैसा ही है जैसा अंग्रेज इसे छोड़ कर गए थे. पूरे इलाके में कोई तरक्की नहीं हुई है. सरकार यहां अपने एजेंट भेजती है जो कर वसूली के लिए आते हैं, लकिन लोगों के पास कोई हक नहीं हैं. सेना अब इसी को बदलने की कोशिश में लगी है.
90 के दशक में पाकिस्तान सेना ने कश्मीर के लिए लड़ने के लिए तालिबान का समर्थन किया, लेकिन बाद में तालिबान उसी के खिलाफ हो गया. इसे देखते हुए 2009 में दक्षिणी वजीरिस्तान में तालिबानियों के खिलाफ जंग बोल दी गयी. 40,000 सैनिकों को वहां तैनात किया गया. इसका असर वहां रह रहे लोगों पर भी पड़ा और करीब पांच लाख लोगों को वजीरिस्तान छोड़ना पड़ा. घर, स्कूल, अस्पताल सबको आतंकियों ने तबाह कर दिया और अपने छिपने के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया.
अब हालात बेहतर हैं, लेकिन सभी लोग लौट कर नहीं आए हैं. सेना की तीन साल की कोशिशों के बाद करीब 41,000 लोग वापस लौटे हैं. पिछले साल इलाके में एक बाजार खोला गया. सेना ने खुद बाजार को रंगों से सजाया. इस बीच सेना के अधिकारी लोगों को यह भी सिखाने लगे हैं कि वे गाय बैल का किस तरह ख्याल रखें और आय के लिए मधुमक्खियों को किस तरह पालें.
तालिबान का खौफ
इस बीच सड़क बनाने का काम भी चल रहा है जो इस जगह को सीधे पेशावर से जोड़ सकेगी. इस सड़क के निर्माण में अमेरिका के 17 करोड़ डॉलर लगे हैं. तालिबान के हाथों अपनी पत्नी को खो चुके अशरफ खान वजीरिस्तान लौटे हैं. वह बताते हैं, "मेरी बीवी आग जलाने के लिए लकड़ी जमा किया करती थी और पानी भर के लाती थी. अब मुझे एक गधा खरीदना पड़ेगा जो सामान ढो सके. मैं उम्मीद कर रहा हूं कि सेना ने मुझे मदद करने का जो वादा किया है वह उसे पूरा करेगी." पशुपालक हामिद जान कहते हैं, "नई सड़क बनने से मेरे लिए जानवरों को लाना ले जाना बहुत आसान हो गया है, मैंने पहले कभी इतना पैसा नहीं कमाया."
इस बीच सेना 33 स्कूलों की मरम्मत कर चुकी है और इनमें करीब 4,000 बच्चे पढ़ भी रहे हैं. लड़कियों की संख्या इनमें केवल 200 है. तालिबान लड़कियों को शिक्षा दिए जाने के खिलाफ है और लोगों में इस बात का डर है. सेना ने एक तकनीकी कॉलेज की भी शुरुआत की है. दिसंबर में वजीरिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नीकल एजुकेशन ने 75 छात्रों ने अपनी पढाई पूरी की.
सेना से जो बन पड़ रहा है वह कर रही है, पर सरकार से बहुत ज्यादा मदद नहीं मिल रही. वजीरिस्तान का सबसे उच्च सरकारी अधिकारी खुद तालिबान के डर से वजीरिस्तान में नहीं रहता. पश्तून लोगों ने इस बात की भी शिकायत दर्ज कराई है कि स्कूलों और कॉलेजों में टीचर कई कई महीनों तक नहीं आते और फिर भी नियमित रूप से वेतन लेते हैं, लेकिन सरकार की तरफ से इस पर कोई जवाबदेही नहीं हुई है.
आईबी/एएम (रॉयटर्स)