दिल्ली की सड़कों पर समलैंगिकों का मेला
२८ नवम्बर २०१०दिल्ली की सड़कों पर रविवार को एक अनोखा मेला सजा. विशाल सतरंगे झंडे के नीचे 2000 लोग अपने चेहरे पर पंखों का मास्क लगाए नारे लगा रहे थे. उनके हाथों में भी नारे लिखी तख्तियां थी और दिल में उमंगों का वह सैलाब. जोश से भरे आयोजकों में से एक अमित कुमार ने कहा, "आज का दिन यह कहने का है कि हम समलैंगिक हैं और हमें इस पर गर्व है. हम कहीं नहीं जा रहे. हमलोग भी समाज का हिस्सा हैं और आज हम औरों से अलग होने के अहसास का मजा ले सकते हैं."
समलैंगिकों की परेड की वजह से दिल्ली की सड़कों पर जाम लग गया. ड्राइवर भौंचक्के होकर इन लोगों को देख रहे थे जो खुले आम एक दूसरे को चूम रहे थे और खुशी से झूम रहे थे. दिल्ली के लिए तो यह नजारा हैरत में डालने वाला था. बड़ी बात यह थी कि हजारों लोग इस परेड का हिस्सा बने थे.
इससे पहले के दो सालाना परेड तो समलैंगिकता को कानूनी अपराध की श्रेणी में रखने के विरोध मार्च में तब्दील हो गई थीं. पिछले साल जुलाई में दिल्ली हाई कोर्ट ने 9 साल चली कानूनी लड़ाई के बाद एक ऐतिहासिक फैसले में आईपीसी की धारा 377 को पलट दिया. अब समलैंगिता भारत में अपराध नहीं. समलैंगिक कार्यकर्ता हिलोल दत्ता कहते हैं, "पिछले साल तो हम विरोध कर रहे थे लेकिन ये साल हमारे लिए खुशी मनाने का है. सिर्फ एक साल ही बीता है लेकिन यह एक बड़ा साल था."
कानूनी पाबंदिया भले ही हट गई हो लेकिन सामाजिक बंदिशे तो है ही. भारत जैसे देश में जहां सामान्य जोड़ों को भी लोगों के सामने लिपटने और चूमने की इजाजत नहीं होती, समलैंगिकों को ऐसा करने की आजादी कैसे मिल सकती है. मजबूत धार्मिक और पारिवारिक मूल्यों की वजह से सामान्य जोड़े भी अपनी यौन इच्छाओं के बारे में बात करना या उसे दूसरे के सामने जाहिर करना उचित नहीं समझते. खासतौर से गांवों में तो बंदिशें और भी ज्यादा हैं. सामाजिक रूप से समलैंगिकता को मंजूरी मिलने में लंबा वक्त लगेगा, इसमें कोई संदेह नहीं दिखता. ज्यादातर समलैंगिक अपने रिश्तों को अब भी छुपा कर ही रखते हैं.
इतना जरूर है कि लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है खासतौर से दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर जैसे बड़े शहरों में. 18 महीने पहले तक दिल्ली के समलैंगिकों के लिए सिर्फ एक बार ही था. पर अब राजधानी के कई बार और पब गे नाइट का आए दिन आयोजन कर रहे हैं. सौरभ गौड़ खुद तो समलैंगिक नहीं लेकिन अपने एक समलैंगिक दोस्त का समर्थन करने परेड में आए हैं. सौरभ कहते हैं, "बदलाव ठीक है लेकिन छोटे छोटे कदम उठाए जाए तो ही सही होगा. युवाओं ने इसे स्वीकार कर लिया है लेकिन पूरे समाज में इस तरह के रिश्तों को मंजूरी मिले इसमें कम से कम 10 साल और लगेंगे."
रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन
संपादनः ए कुमार