फुकुशिमा के बाद जर्मनी ने बदली परमाणु नीति
११ मार्च २०१२इस हादसे से पहले कंजरवेटिव चांसलर अंगेला मैर्केल की सरकार ने परमाणु बिजलीघरों के लाइसेंस की अवधि बढ़ाने का फैसला लिया था. लेकिन दुर्घटना के बाद अंगेला मैर्केल ने अपना विचार बदल दिया. उन्होंने कहा, "परमाणु दुर्घटना ने दिखाया है कि जापान जैसा उच्च तकनीकी देश भी परमाणु ऊर्जा के जोखिमों पर काबू नहीं कर सकता." विपक्ष के व्यापक समर्थन से परमाणु ऊर्जा की समर्थक मैर्केल ने परमाणु बिजलीघरों को बंद करने की शुरुआत की.
हदसे के कुछ ही दिन बाद जर्मन सरकार ने आठ पुराने संयंत्रों को बंद कर दिया. 30 जून 2011 को जर्मन संसद की प्रमुख पार्टियों ने उन्हें पूरी तरह बंद करने का फैसला लिया. इतना ही नहीं, सत्ताधारी सीडीयू, सीएसयू और एफडीपी के अलावा विपक्षी एसपीडी और ग्रीन पार्टी के सांसदों ने योजना से पहले 2022 में ही बाकी परमाणु संयंत्रों को बंद करने का फैसला लिया.
विवादास्पद फैसला
एक पक्ष जर्मनी को नए ऊर्जा युग का आदर्श मानता है तो दूसरे परमाणु बिजलीघरों को बंद किए जाने के फैसले की आलोचना करते हैं. सवाल किया जा रहा है कि अत्यधिक ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाला औद्योगिक देश जर्मनी इतनी जल्दी ऊर्जा स्रोतों के विकल्प का इंतजाम कर सकता है. 2010 में उसकी ऊर्जा जरूरतों का 20 फीसदी परमाणु बिजलीघरों से आया.
देश की चार बड़ी ऊर्जा कंपनियों ने चेतावनी दी है कि बिजली की कमी हो सकती है. उन्होंने भविष्य में बिजली आयात करने की जरूरत पर जोर दिया है. पड़ोसी देशों की बिजली कंपनियों ने तो नए कारोबार की उम्मीद भी लगा ली है. लेकिन एक साल बाद लोग चकित हैं कि जर्मनी परमाणु बिजलीघरों को बंद करने के बावजूद बिजली का निर्यात कर रहा है. कुछ कंपनियों ने नया बिजलीघर बनाने की योजना रोक दी है.
पवन और सौर ऊर्जा
फुकुशिमा की दुर्घटना और सरकार की नीति में परिवर्तन जर्मनी के लिए राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण संकेत था. इसके लिए आरंभिक शर्तें भी अनुकूल थीं. दस साल पहले ही उस समय की एसपीडी-ग्रीन सरकार ने ऊर्जा नीति में परिवर्तन की शुरुआत कर दी थी. उसके बाद से पवन चक्कियां, बायोगैस संयंत्र और मुख्य रूप से देश भर में छोटे पैमाने पर सौर ऊर्जा पैनल लगाए गए थे. इसकी वजह से संयंत्र और नेटवर्क चलाने वाले लोगों के अलावा डेवलपर और इंजीनियरों को भी महत्वपूर्ण अनुभव जुटाने का मौका मिला. इस तरह से पैदा होने वाली बिजली की खरीद के लिए यूनिट कीमत तय कर नवीनीकृत ऊर्जा के प्रसार का कानूनी आधार भी पहले से ही मौजूद था.
2011 में जर्मनी की बिजली सप्लाई में अक्षत ऊर्जा का हिस्सा बढ़कर 21 फीसदी हो गया. एक साल पहले के मुकाबले चार फीसदी ज्यादा. इसमें पवन ऊर्जा का हिस्सा 8 फीसदी, बायोगैस का हिस्सा 6 फीसदी और सौर ऊर्जा का हिस्सा चार फीसदी है. सौर पैनल इस बीच पनबिजली से ज्यादा ऊर्जा की सप्लाई कर रहे हैं. पहले 8 परमाणु बिजली घरों को बंद करने के बाद परमाणु बिजली का हिस्सा 22 फीसदी से गिरकर 15 फीसदी रह गया है. जर्मन सरकार इसे आने वाले सालों में आधुनिकीकरण का सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट मान रही है.
लोगों की मदद
ऊर्जा के नए युग की शुरुआत में सबसे महत्वपूर्ण योगदान आम नागरिकों, किसानों और स्थानीय निकायों का है. वे सौर, पवन और बायोगैस संयंत्रों के अलावा ऊर्जा बचाने वाले ताप बिजलीघरों में निवेश कर रहे हैं. जर्मनी की चार बड़ी कंपनियों ने इसमें शायद ही कोई योगदान दिया है. अक्षत ऊर्जा में उनका हिस्सा सिर्फ 1.5 फीसदी है. दूसरी ओर उन्हें भारी नुकसान हुआ है. पिछले साल इन कंपनी का शेयर बाजार में मूल्य कई अरब यूरो कम हो गया. इसकी वजह परमाणु बिजलीघरों को बंद करना तो थी है, साथ अक्षत ऊर्जा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी थी.
जर्मन के अक्षत ऊर्जा कानून के अनुसार बिजली के नेटवर्क में शामिल करने में उन्हें प्राथमिकता है. इसकी वजह से अक्सर कोयला वाले बिजलीघरों को भी बंद करना पड़ता है और उन्हें कम मुनाफा होता है. सूरज निकलने और हवा चलने पर अक्सर सौर और पवन ऊर्जा जर्मनी की पूरी ऊर्जा जरूरत पूरी कर देता है. उसकी क्षमता लगातार बढ़ रही है. ऊर्जा नीति में परिवर्तन पर्यावरण और मौसम के लिए अच्छा है, लेकिन बिजली कंपनियों के लिए घाटे का सौदा.
ऊर्जा पर सत्ता संघर्ष
जर्मनी ने कड़ाके की सर्दी में पहला टेस्ट पास कर लिया है. घरों को गर्म करने में ज्यादा खपत के बावजूद बिजली की कमी नहीं हुई. हालांकि बहुत से लोगों को शक था कि परमाणु बिजली घरों को बंद करने से मुश्किल होगी, लेकिन तकनीकी रूप से से भी नई ऊर्जा नीति कामयाब रही है. इसकी वजह से बिजली कंपनियों और सरकार के बीच झगडा़ हो गया है. आम लोगों के सौर ऊर्जा पैनल लगाने में आई तेजी से बिजली कंपनियां चिंतित हैं.
सरकार नए कानून बनाकर सौर ऊर्जा में आई तेजी को रोकना चाहती है. वह उपभोक्ताओं के लिए भारी खर्च का बहाना बना रही है. एक नए अध्ययन के अनुसार उसमें विस्तार से बिजली की कीमतों में बहुत थोड़ी वृद्धि होगी. देश की बहुमत आबादी भी चाहती है कि सरकार सौर ऊर्जा के विस्तार पर ध्यान दे. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के प्रमुख रहे क्लाउस टौएप्फर की शिकायत है कि सरकार नई नीति को अनाड़ी की तरह लागू कर रही है.
सौर ऊर्जा शोध संस्थान की प्रमुख प्रोफेसर आइके वेबर भी सरकार से असंतुष्ट हैं, "कुल मिलाकर सरकार दिखा रही है कि उसके बाद ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन के लिए कोई अवधारणा नहीं है." वेबर का कहना है कि जर्मन मॉडल पर दुनिया भर की निगाहें हैं. वैश्विक ऊर्जा नीति में अगुआ होने की जर्मनी भूमिका दांव पर है.
रिपोर्ट: गेरो रुइटर/मझा
संपादन: एन रंजन