विकल्प नहीं परमाणु ऊर्जा
१० मार्च २०१२अमेरिका में ही नहीं, भारत सहित एशिया के दूसरे बड़े देश भी परमाणु तकनीक में बड़ी दिलचस्पी ले रहे हैं. ऊर्जा की तेजी से बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भारत और चीन अगले सालों में दर्जनों परमाणु रिएक्टर बनाएंगे. जापान में परमाणु हादसे के बावजूद इन सरकारों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है. कई देश जिन्होंने पहले कभी परमाणु ऊर्जा के बारे में नहीं सोचा था, अब धीरे धीरे उसकी तरफ बढ़ रहे हैं.
बिजली के लिए पोलैंड अब तक कोयले पर निर्भर था, लेकिन अब परमाणु ऊर्जा उसे आकर्षक लग रही है. जब जर्मनी ने 2028 तक परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता खत्म करने का फैसला लिया, तो पोलैंड के प्रधानमंत्री ने कहा, "जिसे परमाणु रिएक्टर नहीं बनाना है, वह उसकी समस्या है. हम इस बीच पूरा विश्वास करते हैं कि परमाणु ऊर्जा एक अच्छा विकल्प है, जहां तक ऊर्जा पैदा करने का सवाल है."
लेकिन पोलैंड की योजना कब तक और कैसे पूरी होगी, यह पता नहीं चला है. बर्लिन में पर्यावरण वैज्ञानिक लुत्स मेत्स कहते हैं कि पोलैंड को इस दिशा में बहुत तैयारी करनी है. क्योंकि देश में परमाणु ऊर्जा के लिए विश्लेषक नहीं है जो रिक्टर चला सकें. साथ ही सरकारी लाइसेंस और नियंत्रण के लिए भी लोग मौजूद नहीं है. वे कहते हैं कि इस तरह की संस्था बनाने में ही 15 साल लग जाते हैं और योजना और उम्मीद का मतलब नहीं है कि प्रॉजेक्ट सच में चलने लगेगा.
कैसे कम होंगे परमाणु रिएक्टर?
पहले की तरह अब भी ऐसे देश हैं जो भविष्य में बिजली के लिए परमाणु ऊर्जा पर निर्भर होंगे. लेकिन यूरोपीय संसद में परमाणु राजनीतिज्ञ रेबेका हार्म्स का मानना है कि परमाणु रिएक्टरों की संख्या में औसतन कमी आएगी. डॉयचे वेले से इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि लोग इससे पीछे हट रहे हैं. अगले दशकों में नए रिएक्टर बनेंगे, लेकिन 2030 से 2035 तक इनमें कमी आएगी.
लुत्स मेत्स का भी यही मानना है. फ्रांस में यूरोप के सबसे ज्यादा परमाणु रिएक्टर हैं, लेकिन वहां भी सोच बदल रही है. खास कर इसलिए कि ऊर्जा की जरूरत चढ़ती और गिरती रहती है जिसकी वजह से ऐसे रिएक्टरों की जरूरत है जिन्हें चलाया और फिर आसानी से बंद किया जा सके. परमाणु रिएक्टरों में ऐसा करना संभव नहीं है. लुत्स कहते हैं, "मिसाल के तौर पर, काम खत्म होने के बाद जब लोग घर जाते हैं तो बिजली का इस्तेमाल ज्यादा होता है. यह आप नहीं रोक सकते."
अगले कुछ हफ्तों में फ्रांस में नए राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा है. निकोला सारकोजी को चुनौती दे रहे फ्रांसोआ ओलांद चाहते हैं कि देश में बिजली की खपत 75 से 50 प्रतिशत कम होगी. चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक जर्मनी की सरहद पर फेसेनहाइम के रिएक्टर को बंद करने की बात कही जा रही है.
ऊर्जा के भूखे भारत और चीन
विकासशील देशों की हालांकि परेशानी कुछ और ही है. हर साल चीन को 60,000 मेगावॉट बिजली के लिए नए रिएक्टर बनाने पड़ते हैं ताकि वह अपने विकास को बनाए रखे. लुत्स मानते हैं कि इन हालात में परमाणु ऊर्जा की भूमिका कम है. चीन हर साल 500 मेगावॉट का कोयला वाला रिएक्टर बनाता है और पिछले कुछ सालों में नवीनीकृत ऊर्जा का भी इस्तेमाल कर रहा है. चीन में परमाणु ऊर्जा देश की केवल दो प्रतिशत जरूरतों को पूरा करता है. भारत में भी यही हालत है. फ्रांस में बिजली की ज्यादा खपत है क्योंकि देश भर में सर्दी से बचने के लिए चल रहे हीटर बिजली से चलते हैं.
परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा तो एक बात है, लेकिन इससे बड़ी परेशानी इन्हें बनाने के लिए पैसा लाना है. एक गैस रिएक्टर में परमाणु रिएक्टर के मुकाबले दस गुना कम पैसा लगता है. एक परमाणु रिएक्टर बनाने का दाम, रिबेका हार्म्स के मुताबिक सात अरब यूरो यानि 450 अरब रुपए है. जर्मनी के लोअर सेक्सनी राज्य में आसे परमाणु रिएक्टर से निकला कचरा जमीन में घुसकर वहां पानी को खराब कर रहा है. इसे साफ करने में हजारों साल लगेंगे. मेत्स कहते हैं कि इस तरह का निवेश करने का मतलब है कि सालों साल इसमें पैसे लगते रहेंगे. अब भी परमाणु कचरे को सुरक्षित रखने का कोई तरीका नहीं मिल पाया है और पुराने रिएक्टरों को खत्म करने की तकनीक भी विकसित नहीं की गई है.
1974 में ही अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी ने कहा था कि 2000 तक परमाणु रिएक्टरों से 4,500 गीगावॉट बिजली निकलेगी. 2010 तक यह संख्या हालांकि केवल 375 गीगावॉट रही और भविष्य में इसके और कम होने की संभावना है.
रिपोर्ट: क्लाउस यानसेन/एमजी
संपादन: महेश झा