फ्रित्स उरबाखः कोब्लेंस से अफगानिस्तान तक
४ अगस्त २०११फ्रित्स उरबाख 52 साल के हैं, शादी शुदा हैं और तीन बच्चों के पिता हैं. केल अम राइन शहर के उरबाख 1997 से बुंडेसवेयर यानी जर्मन सेना में हैं. अब कर्नल बन चुके उरबाख आतंकी हमले के दिन कोब्लेंज की एक छावनी में पहरे की ड्यूटी पर थे. कई अन्य लोगों की तरह उन्होंने भी न्यू यॉर्क से दिल दहला देने वाले दृश्य टीवी पर लाइव देखे.
न्यू यॉर्क, काबुल, फैजाबाद
"मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह सचमुच के दृश्य हैं. यह बिलकुल सच नहीं लग रहा था और यकीन से परे. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था." भले ही उन्हें यह सोचना पसंद नहीं आया हो लेकिन तेजी से उन्हें इस बारे में सोचना पड़ा कि इन हमलों का उन पर व्यक्तिगत तौर पर भी असर पड़ सकता है. न्यू यॉर्क के आसमान में जलते हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का धुआं अभी बुझा भी नहीं था कि नाटो के इतिहास में पहली बार सदस्य देश पर हमला होने के कारण बाकी देशों को उसके साथ खड़ा होने का कर्तव्य पूरा करना पड़ा.
कुछ ही महीनों बाद संसद से प्रस्ताव पारित होने पर जर्मन सेना को भी हिंदुकुश को स्थिरता लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय अफगानिस्तान अभियान में हिस्सा लेना पड़ा. फ्रित्स उरबाख उस समय सेना कमान में योजना बनाने वाली टीम का हिस्सा थे. अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में तैनात किए जाने वाले पहले जर्मन सैनिकों को संगठित करना और प्रशिक्षण देना था.
तोरा बोरा की पहाड़ियों पर
2001 के आखिर में उरबाख ने तुर्की में एक नाटो अभ्यास में हिस्सा लिया. अफगानिस्तान अभियान यहां भी नाटो के सहयोगी अधिकारियों के बीच चर्चा का मुद्दा था. उरबाख याद करते हैं, "आसमान में बमवर्षक विमान बी-52 के पीछे छूटता धुंआ दिखा जो तोरा बोरा पर बम बरसाने अफगानिस्तान की दिशा में जा रहे थे." उस समय उनका मन भारी हो गया था, "ओह! हम भी अब इसमें शामिल हैं. यह अब कोरी कल्पना नहीं थी बल्कि हाथ में पकड़ा जा सकने वाला सच था."
फ्रित्स उरबाख के लिए परिवार से लंबे समय तक दूर रहना रोज की बात हो गई. सैन्य अधिकारी को आने वाले सालों में कई बार अफगानिस्तान भेजा गया. पहली बार 2003 के पतझड़ में. "बच्चे उस समय कुछ छोटे थे. और मेरी पत्नी को पहले से पता था कि मेरी आज या कल विदेश में तैनाती होगी." घर पर तीन बच्चों के पिता को हर संभव सहयोग मिला ताकि वह इस जिम्मेदारी को पूरी तरह निभा सकें. "मेरी पत्नी भी एक सैनिक परिवार से है. उसे सैन्य जीवन का पता था और सैनिक होने का क्या कीमत होती है वह अच्छे से जानती है."
फैजाबाद में मौत
इसकी कीमत बहुत ज्यादा होती है और कई बार और ज्यादा हो सकती है, इसका अनुभव फ्रित्स उरबाख को आने वाले वर्षों में कई बार करना पड़ा. उत्तरी अफगानिस्तान के फैजाबाद में पुनर्निर्माण टीम के नेतृत्व के दौरान अप्रैल 2010 में एक अभियान के दौरान उनके तीन जवान मारे गए. उरबाख ने खुद उन्हें घातक मिशन पर भेजा था. "मैं इन जवानों के लिए जिम्मेदार था, उनके परिजनों के लिए, उन्हें सूचना देने और सात्वंना देने, इसके साथ जुड़ी सारी बातों का जिम्मा भी मेरा था. इन सैनिकों से मैं उस ऑपरेशन के पहले अपने पूर्वगामी की उपस्थिति में मिला था, जिसमें वे मारे गए. जब परिवार का कोई व्यक्ति मारा जाता है तो बहुत बुरा लगता है," उरबाख उन दिनों की याद करते हुए बताते हैं.
फ्रित्स उरबाख पिछले एक दशक में एक दर्जन से अधिक बार अफगानिस्तान में तैनात हो चुके हैं. इस तरह से उन्होंने पिछले सालों में सैनिकों के जीवन पर बढ़ते खतरे को देखा है. "2002 के बाद हमारे अभियान की शुरुआत शांतिपूर्ण और स्थिर इलाके में हुई. लेकिन धीरे धीरे हमें समझ में आया कि ऐसा नहीं है और खतरा लगातार हमारे नजदीक आ रहा था." कर्नल उरबाख पुराने दिनों पर नजर डालते हुए कहते हैं कि सुरक्षा की स्थिति एक ही रात में खराब नहीं हुई. पिछले दिनों में एक के बाद एक ऐसी घटनाएं हुई जो उन्हें 11 सितंबर और अफगानिस्तान अभियान की शुरुआत की याद दिलाती हैं.
इस्लामी कट्टरपंथ का भयंकर चेहरा
ऐसे ही एक दिन सितंबर 2010 में अमेरिका में कुरान को सार्वजनिक तौर पर जलाने की घोषणा के बाद फैजाबाद में जर्मन सैनिक छावनी के सामने प्रदर्शन हुए. अब भी उरबाख की आंखों के सामने वह घटना ताजा है. "हम पर पत्थर फेंके गए और प्रदर्शनकारियों को शांत करने के लिए अफगान पुलिस ने हवाई फायरिंग की." प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधि से सुलह की बातचीत करने गए उरबाख की मुलाकात जिन लोगों से हुई वे उन्हें 11 सितंबर के हमलावरों की याद दिलाते थे."मेरे हिसाब से ये युवा उन्मादी कट्टरपंथी थे. उनकी चाल ढाल से, उनके बहस के तरीके से लग रहा था कि ये उसी तरह के लोग हो सकते थे जो आतंकी हमले के लिए अपना विमान कहीं भी टकरा सकते थे. वही युवा, उसी किस्म की दलीलें, वही अड़ियल रुख जो कुछ भी नहीं सुनना चाहते."
फ्रित्स उरबाख राजनीतिक सोच रखने वाले सैनिक हैं. अफगानिस्तान में उनके व्यापक अनुभव ने उन्हें कटौती करना और कम में काम चलाना सिखाया है. इसमें हिंदूकुश पर अंतरराष्ट्रीय सैन्य अभियान के आरंभिक लक्ष्य भी शामिल हैं. "2002 के अभियान में हमारा पहला लक्ष्य था कि हम इस देश अपने हाथ में लेना चाहते है और इसे लोकतंत्र की तरफ ले जाना चाहते हैं. हमारी समझ से इसमें मानवाधिकार और महिलाओं को समान अधिकार भी शामिल हैं. मेरा मानना है कि दुखद अनुभवों के बाद हमें इन विचारों से अलग होना पड़ेगा." लेकिन इन सबके बावजूद कर्नल को उम्मीद है कि अफगान लोग कुछ समय में खुद अपनी सुरक्षा की गारंटी कर पाएंगे, ताकि अफगानिस्तान में फिर कभी 11 सितंबर के हमलावरों जैसे आतंकी छिपने की जगह न पा सकें. "अगर हमने यह लक्ष्य पा लिया है तब हम अफगानी नागरिकों को धीरे धीरे अकेले छोड़ सकते हैं."
रिपोर्टः डानिएल शेश्केवित्स/आभा एम
संपादनः महेश झा