मकबरों पर हमले से तालिबान को मिली नफरत
२२ दिसम्बर २०११दुनिया के एक बड़े हिस्से को सकून से भर देने वाले सूफी संतों की संगत पर हमला इलाके के लोगों को नाराज कर गया. तालिबान को यह बात समझ में नहीं आई. खैबर एजेंसी में दुकान चलाने वाले अफक अली कहते हैं, "तीन साल पहले मैं तालिबान का समर्थक हुआ करता था क्योंकि मुझे लगा कि वो पक्के मुसलमान हैं लेकिन जब सूफी संतों के मकबरे तोड़ दिए तो मुझे और दूसरे लोगों को तकलीफ हुई." खैबर एजेंसी में 9 दिसंबर को अलग अलग हमलों में शेख बहादर बाहवा और शेख निसा बाबा के मकबरे तोड़ दिए गए. अली ने कहा, "इस तरह के हमले स्वीकार्य नहीं हैं और जो लोग पहले तालिबान को पैसे देते थे वो भी उससे नफरत करने लगे हैं."
सूफियों के दुश्मन तालिबान
तालिबान 2005 से ही इस तरह के हमले करता आ रहा है. सूफी संतों के मकबरे को मुस्लिमों में वहाबी धारा के लोग गैरइस्लामी मानते हैं. पाकिस्तान में कम से कम 25 मकबरों को निशाना बनाया गया है जिनमें कई तो सौ साल से ज्यादा पुराने थे. पेशावर के स्थानीय इमाम मुफ्ती गुलाम नबी कहते हैं, "तालिबान में कई धड़े हैं और इनमें वहाबियों का जो गुट है वो दरगाहों पर लोगों के जाने का विरोध करता है. इन हमलों ने लोगों को डरा कर इनसे दूर कर दिया है. वहाबियों को छोड़ दें तो बाकी सारे गुट सूफी और आध्यात्मिक कवियों को बहुत सम्मान देते हैं."
इसी इलाके में रहने वाले मौलाना गुलाम रसूल ने बताया कि मुख्यधारा की तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान सूफियों और संतों के दरगाहों को तोड़ने के खिलाफ है लेकिन अहले हदीस से निकलने वाले तालिबान इनका विरोध करते हैं. अहले हदीस के मदरसों से ताल्लुक रखने वाले मुस्लिमों को वहाबी कहा जाता है. वहाबी कट्टरपंथ का जन्म सऊदी अरब में हुआ और वहां की मौजूदा सरकार इस धारा से जुड़ने वालों को मस्जिद और दूसरे संस्थान बनाने के लिए पैसे देती है.
हमले पर हमला
28 मई 2005 को इस्लामाबाद के बड़ी इमाम दरगाह पर आत्मघाती हमला हुआ जिसमें 20 लोगों की मौत हुई. इससे पहले सूफियों के मकबरे पर हमले की बात कोई सोच भी नहीं सकता था. 2006 में पाकिस्तानी तालिबान ने मोहमंद एजेंसी में हाजी साहब तुरंगजई की दरगाह पर कब्जा कर लिया और उसे अपने मुख्यालय में बदल दिया. 2008 आते आते तालिबान ने अपना आंदोलन तेज कर दिया और पेशावर के चमखानी में अब्दुल शकूर बाबा की दरगाह समेत कई मकबरों को बम से उड़ा दिया गया. 5 मई 2009 को पेशावर में 17वीं सदी के सूफी कवि अब्दुल रहमान बाबा के मकबरे को उड़ा दिया गया. इसके बाद लोग तालिबान के विरोध में खुल कर सामने आने लगे.
पेशावर में रहने वाली गृहिणी 26 साल की सईद बीबी कहती हैं, "संतों के मकबरे पर हमला कर तालिबान ने जता दिया कि वो मुस्लिम नहीं हैं. वो लोग यह सब इस्लाम के दुश्मनों को खुश करने के लिए कर रहे हैं. अब मैं तालिबान की कट्टर विरोधी हूं."
पीर बाबा का अपमान
पाकिस्तान सरकार ने कुछ बेहद अहम सूफी दरगाहों को बचाने की कोशिश की है. खैबर पख्तून प्रांत के बुनेर जिले में 16वीं सदी के बहुत सम्मानित सूफी पीर बाबा की मजार को 2009 में सुरक्षा बलों ने सही वक्त पर दखल दे कर जलाए जाने से बचा लिया. हालांकि लाहौर के दाता दरबार पर जुलाई 2010 में तीन बार हमला किया गया. इनमें 40 लोगों की मौत हुई. खैबर पख्तून के सूचना मंत्री मियां इफ्तिखार हुसैन ने बताया, "हमने टूटे और क्षतिग्रस्त मकबरों को फिर से बनाने के लिए 8 लाख अमेरिकी डॉलर की रकम निकाली है. इन जगहों पर स्थायी सुरक्षा के भी इंतजाम किए गए हैं जिससे कि भविष्य में होने वाले हमलों को रोका जा सके."
तालिबान न सिर्फ यहां हमले करते हैं बल्कि लोगों को वहां जाने से भी रोकते हैं. खैबर एजेंसी में 20वीं सदी के संत आमिर हमजा खान शिनवारी की दरगाह की देखरेख करने वाले उमर शाह ने बताया, "हमें तालिबान के कई पत्र मिले जिनमें उन्होंने महिलाओं को दरगाह में आने से रोकने के लिए धमकी दी. आतंकवादी समझते हैं कि महिलाओं का दरगाह में आना नैतिक रूप से गलत है." मोहम्मद अब्दुल्लाह एक कवि हैं, जो कहते हैं, "सूफियों के विचार तालिबान के लिए अभिशाप जैसे हैं. सूफी लचीलेपन की बात करते हैं जबकि तालिबान कट्टरपंथी की. दोनों दो विपरीत ध्रुव हैं."
रिपोर्टः आईपीएस/एन रंजन
संपादनः अनवर जे अशरफ