'मलाला' की कहानी अब शुरू
२२ जनवरी २०१३11 साल की कच्ची उम्र में मशहूर होने वाली मलाला यूसुफजई ने हिम्मत और हौसले में बड़े बड़ों को पीछे छोड़ दिया. तीन महीने पहले तालिबान की गोली से जख्मी हुई मलाला को इस महीने लंदन की क्वीन एलिजाबेथ अस्पताल से छुट्टी मिल गई और अब वह बर्मिंघम में ही अपने परिवार के साथ रह रही हैं. दो हफ्ते बाद उन्हें सिर की हड्डी की सर्जरी के लिए फिर अस्पताल लौटना होगा. इस बीच मलाला की जांबाजी का असर यूरोप में भी दिखाई दे रहा है.
पाकिस्तान से बाहर मलाला की उड़ान
मलाला के इलाज के लिए ब्रिटेन में बने रहने से वहां और आसपास के इलाकों में भी उनकी चर्चा छिड़ी हुई है. भविष्य में ब्रिटेन में उनके रहते समारोहों और शैक्षिक आयोजनों के सपने देखे जा रहे हैं. ब्रिटेन में युवा मुसलमानों की नेता मरियम डुएल ने कहा, "मलाला लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है." उन्होंने बताया कि वह मलाला की कहानी का असर अपनी छोटी बहन के साथ ही दूसरे बच्चों पर भी देख रही हैं. वह कहती हैं, "मलाला से मेरी बहन को भी यह सीखने को मिला है कि कई बार कुछ पाने के लिए अपना सारा जीवन पढ़ाई को देना कितना जरूरी होता है." उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही मलाला को स्कूलों, मस्जिदों और सामुदायिक केंद्रों पर भाषण देते देखा जाएगा.
ब्रिटेन की ही क्वींस मैरी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के छात्र नजहबुर हक के अनुसार कई रूढ़िवादी मुसलमानों को मलाला की बढ़ रही प्रसिद्धि और ताकत से डर भी हो सकता है और खुशी भी. हक कहते हैं, "इस्लाम कहता है कि हर किसी को उसकी इच्छानुसार शिक्षा मिलनी चाहिए. मलाला दूसरी लड़कियों के लिए भी आदर्श साबित हो रही है."
मलाला के पिता जियाउद्दीन यूसुफजई पाकिस्तान में शिक्षक थे. इस हादसे के बाद पाकिस्तान सरकार ने उन्हें बर्मिंघम में ही पाकिस्तानी कॉन्सुलेट में नौकरी दे दी है जिससे कि वह वहीं रह कर बेटी का इलाज करवा सकें. इस नौकरी के चलते जियाउद्दीन यूसुफजई अपने परिवार के साथ तीन से पांच साल तक वहीं रह सकेंगे.
बदलता सामाजिक रवैया
लंदन के किंग्स कॉलेज में प्रोफेसर मलीहा खान भी मानती हैं कि मलाला का प्रभाव दूसरी लड़कियों की सोच पर भी पड़ रहा है. साथ ही मलिक को इस बात की चिंता है कि बदलाव सिर्फ लड़कियों में नहीं बल्कि परिवार के मर्दों में भी आना जरूरी है.
उनके अनुसार मलाला को उसके पिता जियाउद्दीन यूसुफजई का समर्थन है. इस पूरे घटनाक्रम में उनकी जो भूमिका रही है, उसके चलते संयुक्त राज्य को चाहिए कि सिर्फ बर्मिंघम ही नहीं बल्कि यूरोप के दूसरे देशों और खुद मलाला के देश पाकिस्तान में भी जियाउद्दीन को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए. फिलहाल मलाला के इलाज और उनके पूरी तरह सेहतमंद हो जाने तर मलाला के पिता अपने पूरे परिवार को अगले कम से कम तीन साल तक बर्मिंघम में ही रखना चाहते हैं.
तालिबान और मलाला
अफगानिस्तान से लगी स्वात घाटी की 11 साल की मलाला ने तालिबान के खिलाफ एक भाषण में यह कह कर विरोध का बिगुल बजाया था कि 'कोई मुझसे मेरा शिक्षा का मूल अधिकार कैसे छीन सकता है.' उसके बाद मलाला ने ब्रिटेन की प्रसारण संस्था की उर्दू सेवा के लिए डायरी भी लिखी जिसमें उनके निडर अंदाज ने उन्हें रातों रात मशहूर बना दिया. महिलाओं की शिक्षा का विरोध करने वाला कट्टरपंथी तालिबान इससे तिलमिला उठा. तालिबान ने स्कूल बस में घुसकर मलाला के सिर पर गोली मार दी.
मलाला और तालिबान के बीच की तल्खियां तब सामने आईं जब स्वात घाटी में तालिबान ने लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी लगा दी और लोगों को डराना धमकाना शुरू कर दिया. मलाला ने इस बात का खुला विरोध किया और डटकर स्कूल ड्रेस पहन कर स्कूल जाती रही. इसके अलावा वह डायरी में भी अपने अनुभवों और भविष्य को लेकर अपने सपनों के बारे में लिखती रहीं. तालिबान ने मलाला के इस व्यवहार को बेशर्मी और पश्चिमी सभ्यता का प्रतीक बताया. इसके बाद ही 9 अक्टूबर 2012 को मलाला पर हमला हुआ जिसमें उनकी जान दांव पर लगी. तालिबान के प्रवक्ता ने इसे मलाला के लिए सबक बताया.
पाकिस्तान में मलाला के इलाज के दौरान डॉक्टर उसके सिर से गोली निकालने में तो कामयाब हुए लेकिन उसके आगे के इलाज के लिए मलाला को लंदन के क्वीन एलिजाबेथ अस्पताल भेज दिया गया था.
घर घर में 'मलाला'
मलाला यूसुफजई की डायरी और उनके बेबाक जज्बे ने उन्हें पाकिस्तान में मशहूर और तालिबान की गले की हड्डी बना दिया. हमले ने उनकी हिम्मत तोड़ने के बजाय उन्हें दुनिया भर का जाना माना नाम बना दिया. हमले के साथ ही सोशल नेटवर्किंग साइट्स से लेकर गलियों चौराहों पर उनकी हिम्मत के चर्चे होने लगे. लोगों ने खुले शब्दों में हमले की आलोचना की. स्वात घाटी से निकली एक 11 साल की बच्ची की आवाज अब लगता है सिर्फ अकेले उसकी नहीं रही. तालिबान के खिलाफ सिर उठाने वाली इस बच्ची की आवाज ने दुनिया भर में चार दीवारियों के भीतर दबी सहमी लड़कियों को शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ने हिम्मत दे डाली.
रिपोर्ट: काइल मैक किनन/समरा फातिमा
संपादन: ओ सिंह