सियासी ग्लोबल वॉर्मिंग में तपती जनता
१२ दिसम्बर २०११आईए हम इसे स्वीकार करें. जैसा कि अल गोर ने कहा है यह असुविधाजनक सत्य है. जलवायु परिवर्तन हो रहा है और उसे रोकने का समझौता करने के लिए पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. प्रमुख औद्योगिक देश और उभरती अर्थव्यवस्थाएं और सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस पैदा करने वाले देश चीन, अमेरिका, भारत और जर्मनी पर्यावरण की रक्षा के लिए आर्थिक विकास की प्रमुखता की बलि देने को तैयार नहीं हैं. यह डरबन सम्मेलन का निराशाजनक अंत है.
निश्चित तौर पर उन सबकी अपनी दलीलें हैं. अमेरिका, भारत, कनाडा और जर्मनी जैसे लोकतंत्रों में ऐसे नेता हैं जो अलोकप्रिय कदम उठाने पर, जिन्हें जलवायु परिवर्तन को संशय से देखने वाले गैरजरूरी मानते हैं, जनमत की प्रतिक्रिया से डरते हैं. इनमें से ज्यादातर देशों में चुनाव आने वाले हैं. रूस और चीन जैसे देशों की निरंकुश सरकारों को भी आर्थिक विकास दर गिरने की हालत में जनता में असंतोष फैलने का डर है. क्योंकि वे सरकार के लिए चुनौती बन सकते हैं.
लेकिन ये चिंताएं जितनी भी महत्वपूर्ण हों, मानवजाति का भविष्य दांव पर है. और ये राजनीतिक नेताओं के करियर से ज्यादा महत्वपूर्ण है. वैज्ञानिक हमें सालों से बता रहे हैं कि कार्बन डाय ऑक्साइड की निकासी माहौल को गर्म कर रही है. ऊपरी वातावरण में एक छतरी सा बना रही है, जो सूरज की गर्मी समेटता है और तापमान बढ़ाता है. यदि वैश्विक तापमान औसत छह डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ता है तो धरती के बहुत से इलाके रहने लायक नहीं रह जाएंगे. पेयजल की आपूर्ति रुक जाएगी. समुद्र का जलस्तर उठ जाएगा.
तटीय क्षेत्र की जमीन खारे पानी से खराब हो जाएगी और लोगों को भागकर अंदर की ओर जाना होगा. इसका मतलब भारी विस्थापन होगा. अकेले बांग्लादेश में 2 करोड़ लोगों के सामने यह खतरा है. वे कहां जाएंगे? क्या इस तरह के शरणार्थी क्षेत्रीय युद्ध का कारण बनेंगे? इस तरह के परिणामों से इनकार नहीं किया जा सकता. यदि इस बात को ध्यान में रखा जाए कि दुनिया की आबादी इस शताब्दी के अंत तक बढ़कर 9 अरब हो सकती है.
भारत और चीन में समझा जाता है कि समस्या का हल पश्चिम देशों को करना है. उनकी दलील है कि पश्चिम औद्योगिकीकरण की शुरुआत से ही वातावरण का इस्तेमाल कूड़ेदान की तरह कर रहा है. ये सच है. लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं होगा क्योंकि 21वीं सदी की दो उभरती महाशक्तियां भारत और चीन अब स्वयं प्रमुख प्रदूषक हैं. अगले दशकों में वे कार्बन डाय ऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में शायद पश्चिमी देशों को पीछे छोड़ देंगे. उनके लिए इस समय आर्थिक विकास नई तकनीकी में निवेश से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है, खासकर उन इलाकों में जहां मामला अस्तित्व का है.
लेकिन हकीकत में मानवजाति के सामने विकल्प नहीं है. उसे कदम उठाना होगा. इस बात को झुठलाना कि फौरी समस्या है, भ्रामक और स्वार्थी है. नई दिल्ली और बीजिंग को अब सामने आना होगा और जिम्मेदारी उठानी होगी.
लेकिन पश्चिमी देशों को भी यही करना होगा. उन्होंने पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं. और यह बात साफ साफ कही जानी चाहिए. ग्रीन हाउस गैसों को घटाने की कानूनी प्रतिबद्धता से इनकार करना अमेरिका का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है. पश्चिमी देशों के लिए और कड़े कदमों पर विचार करने से मना करना भी दायित्वहीन है. परमाणु बिजलीघरों को बंद करने के बर्लिन के फैसले का मतलब कार्बन डाय ऑक्साइड के उत्सर्जन में वृद्धि है, न कि कमी. और जर्मन सरकार अपने नागरिकों को कब तक हाइवे पर तेज गाड़ी चलाने देगी? यह दुनिया को कैसा संदेश है?
दरअसल उत्सर्जन को कम करने का हर कदम जरूरी है. जर्मनी की लाज इस बात ने बचाई है कि उसने हाल के सालों में प्राकृतिक ईंधन को बचाने की तकनीकियों के विकास, सौर तथा पवन ऊर्जा को बढ़ावा देने और कम खपत वाले घरों के निर्माण के लिए काफी कुछ किया है. इसका श्रेय जर्मनी की ग्रीन पार्टी को जाता है. इन तकनीकियों को जितनी जल्दी हो सके हर जगह लागू किया जाना चाहिए. हालांकि इसका मतलब भारी निवेश है, इस तरह के कदमों से आर्थिक विकास होगा और रोजगार बनेंगे. राजनीतिज्ञों के लिए यह महत्वपूर्ण संदेश है.
आखिर ऐसा समझौता असंभव क्यों है जो मानवजाति को बचाने में मदद कर सकता है? निश्चय ही कोयला और तेल उद्योग के वर्चस्व वाला परंपरागत ऊर्जा सेक्टर अपने हितों की खातिर परिवर्तन को रोक रहा है. लेकिन असली समस्या हम खुद हैं. सामान्य लोगों के लिए जलवायु परिवर्तन दूर का ढोल है. पश्चिमी देशों में कोई कार और अच्छी धूप वाले सुदूर जगहों के पर्यटन के बिना नहीं रहना चाहता, जिसमें हवाई यात्रा भी शामिल होती है. लोग सर्दियों में गर्म घर और गर्म मुल्कों से आयातित फल सब्जी, कपड़े और फूल चाहते हैं. हमारी जीवनशैली ऐसी हो गई है जो अपने बूते पर नहीं चल सकती.
कुछ विशेषज्ञ डरबन सम्मेलन के नतीजों को सकारात्मक दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. यह खुद को धोखा देना है. यह सही है कि क्योटो संधि को बढ़ा दिया गया है. यह भी सही है कि और भी वार्ताएं होंगी, जिनका लक्ष्य 2020 तक बाध्यकारी संधि है. लेकिन सच ये भी है कि इनसे ग्लोबल वॉर्मिंग कम नहीं होगी. दुनिया हर साल जितना देर कर रही है, वह जलवायु परिवर्तन के खर्च को और बढ़ाएगा. अंत में शायद इसे रोकने में बहुत देर हो जाए. फिर हमारे बच्चे और उनके बच्चे हमारी पीढ़ी के बारे में क्या कहेंगे? सोचकर घबराहट होती है.
समीक्षा: ग्रैहम लूकस/मझा
संपादन: ए जमाल