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उधार के पैसे लेकर आए हैं बर्लिनाले

१९ फ़रवरी २०१२

मोहन कुमार वलसला अपनी फिल्म "पंचभूत" के साथ बर्लिनाले आए हैं. पंचभूत भारत से एकमात्र फिल्म है जिसे बर्लिनाले की प्रतियोगिता के लिए चुना गया है, लेकिन भारत सरकार से निर्देशक को कोई मदद नहीं मिली है.

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निर्देशक मोहन कुमारतस्वीर: DW

बर्लिन फिल्म महोत्सव में पहुंचे मोहन कुमार और उनके साथ फिल्म में काम कर रहे वेंकट अमुदन ने डॉयचे वेले के साथ खास बातचीत की. दोनों पहली बार भारत के बाहर कदम रख रहे हैं. बर्लिन शहर में महोत्सव की भव्य तैयारियों को देखकर अमुदन और कुमार, दोनों खुशकिस्मत महसूस कर रहे हैं. अमुदन का कहना है, "हमने नहीं सोचा था कि हमारी फिल्म बर्लिनाले के लिए चुन ली जाएगी क्योंकि हमने यह अपने कोर्स के लिए बनाया था. हम अपना प्रयोग कर रहे थे." कुमार और अमुदन कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ाई कर रहे हैं.

कचरे पर फिल्म

पंचभूत कोलकाता के पास धापा डंपिंग ग्राउंड पर बनी फिल्म है. धापा में कोलकाता का सारा कचरा जमा किया जाता है और यहां अस्पताल से निकले कूड़े के साथ पुरानी मशीनें, घरेलू कचरा और मरे हुए जानवर और कभी कभी मनुष्यों के शव भी मिलते हैं. कुमार ने धापा पर सुबह से लेकर शाम तक बदलती रोशनी को अपने कैमरे में कैद किया है. संगीत, आवाज या कहानी का इस्तेमाल किए बगैर कुमार और अमुदन ने जानने की कोशिश की है कि मलबे के टीले पर रहने वाले लोग किस तरह कचरे को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेते हैं. फिल्म बनाने के बाद उन्होंने एक सीडी बर्लिनाले के आयोजकों को भेजी, जिसके बाद फिल्म बर्लिनाले शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी प्रतियोगिता के लिए चुन लिया गया.

मोहन कुमार का मानना है कि आम तौर पर इस तरह की डॉक्यूमेंटरी फिल्म महोत्सवों में नहीं दिखाई जाती. फ्रांस के कान फेस्टिवल में भी ऐसी फिल्मों के लिए कोई जगह नहीं होती. कुमार ने कहा, "हमें उम्मीद नहीं थी, लेकिन हमें चुन लिया गया."

Venkat Amudhan
बर्लिन में आ कर खुश हैं वेंकट अमुदनतस्वीर: DW

मुश्किल है काम

फिल्म की पढ़ाई कर रहे दोनों निर्देशकों को लगता है कि भारत में अब भी पंचभूत जैसी अलग तरह की डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाना मुश्किल काम है. भारत में डॉकएज जैसे फिल्मोत्सवों में अलग तरह की फिल्मों को मौका मिल जाता है लेकिन जर्मनी या पश्चिमी देशों में जिस तरह के मौके हैं, भारत में अब भी ऐसा हो नहीं पाया है. कुमार का कहना है, "भारत में जिस तरह की डॉक्यूमेंटरी बनती है, उसमें किसी मुद्दे को लिया जाता है. यह राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे हो सकते हैं." मोहन कुमार और वेंकट अमुदन ने अपने काम के जरिए फिल्म को एक कला के रूप में पेश करने की कोशिश की है.

हालांकि कुमार और अमुदन की कोशिशों को भारत सरकार की तरफ से कोई प्रोत्साहन नहीं मिला है. सत्यजीत रे फिल्म इंस्टीट्यूट भारत की सूचना मंत्रालय का हिस्सा है और मंत्रालय से उन्हें आश्वासन मिला है कि बर्लिन तक आने के लिए उन्होंने अपनी फ्लाइट में जितने पैसे खर्च किए हैं, वे उन्हें मिल जाएंगे. लेकिन बर्लिन आकर अपनी फिल्म को पेश करने के लिए उत्सुक निर्देशक और उनके साथी अपने परिवारों और दोस्तों से उधार लेकर ही यहां तक पहुंच पाए हैं.

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः ए जमाल

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