मैं तो मन की सुनता हूं: फरहान
१२ फ़रवरी २०१२डॉयचे वेलेः जब डॉन 1 पूरी हो गई थी तो क्या आपका डॉन 2 करने का भी प्लान था?
फरहान अख्तरः जैसे वह फिल्म खत्म हुई थी तो मैं नहीं कहूंगा, मैंने उस वक्त सोचा था कि मैं डॉन 2 बनाऊंगा, क्योंकि मैंने कुछ कहानी लिखी हुई थी. यह बहुत जरूरी था कि पहले हम किसी कहानी पर सोचें, अगर इस फिल्म को एक नए स्तर पर ले जाना है, यह सब करने के लिए बहुत मेहनत पहले स्क्रिप्ट पर हुई, स्टोरी पर हुई, फिर हमने कहा, अब जाकर शूटिंग करेंगे.
डॉयचे वेलेः बर्लिन में शूट करने का आप दोनों का अनुभव कैसा रहा?
फरहान अख्तरः बहुत अच्छा रहा. जो मैं चाहता हूं कि मुझे मिले, जिससे मेरी फिल्म बेहतर बन सके, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है. यहां पर जो क्रू है, जो प्रोडक्शन था, यहां जिन लोगों ने हमारी मदद की, इस फिल्म को यहां लाने में, निर्देशक होने की हैसियत से मुझे नहीं लगता आप कुछ और मांग सकते हैं.
रितेश सिधवानीः मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों को यहां पर शूट नहीं किया गया, यह एक नई बात थी. जैसा कि फरहान ने कहा, बहुत ही फिल्म फ्रेंडली शहर है यह. मीडियनबोर्ड ने बहुत मदद की. बहुत प्रोत्साहन दिया ताकि यह फिल्म मुमकिन हो सके. यूरोप में शूट करना महंगा है. मुझे लगता है कि पहली बार किसी हिंदी फिल्म ने मीडियनबोर्ड और डीएफएफ की मदद ली है. सांस्कृतिक मसले थे, लेकिन हमने कर ही लिया.
डॉयचे वेलेः इंडिया में लोगों ने इस बारे में क्या कहा. यहां ज्यादातर लोग स्विस पहाड़ देखते हैं, और वहां नाच गाना होता है?
फरहान अख्तरः अब तक कुछ 90 वाले दौर में हैं. सिनेमा काफी बदल चुका है. इस वक्त ज्यादातर गाने स्विस आल्प्स में नहीं गाए जाते. हमारी फिल्म ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है. भारत में भी फिल्म बहुत कामयाब रही है. विदेश में भी बहुत कामयाब रही है. चार पांच देशों में रिलीज भी होगी. यह एक बहुत अच्छा वक्त है, क्योंकि ज्यादातर एक्शन फिल्में जो होती हैं, उन्हें देखने वाले इतना ज्यादा नहीं होते जितना रोमांटिक फिल्म या एक सामाजिक फिल्म को.
डॉयचे वेलेः हिंदी सिनेमा में क्या आपको लगता है कि यह बहुत व्यावसायिक हो गया हैं. आर्ट और कमर्शियल फिल्मों में क्या अंतर रह गया है?
फरहान अख्तरः अगर कोई चाहता है कि वह एक कमर्शियल फिल्म बनाए, जिसमें कोई संदेश की जरूरत नहीं है, या मैं सिर्फ लोगों का मनोरंजन करना चाहता हूं, तो कोई नहीं कह रहा कि यह अच्छी या बुरी बात है. हर किस्म की फिल्म बननी चाहिए. जब ऐसा माहौल बन जाए, सारी फिल्में रिलीज हों, आपको इसे बांटने वाले मिलें, यह एक स्वस्थ माहौल है किसी भी इंडस्ट्री के लिए. आजकल सारी फिल्में रिलीज हो रही हैं, मुझे लगता है यह एक अच्छा संकेत है.
डॉयचे वेलेः फरहान, आप जाने जाते हैं नए दौर की क्लट मूवीज के लिए, जैसे दिल चाहता है और जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, क्या आप भविष्य में ऐसी फिल्में भी बनाएंगे जो यूरोपीय लोगों को आकर्षित करे?
फरहान अख्तरः डॉन 2 यूरोपीय जनता को आकर्षित करने के लिए ही तो बनाई गई है. लेकिन मेरा यह भी मानना है कि इतना सोचकर आप कोई भी फिल्म नहीं बना सकते. अगर मैं सोचूं कि मैं अब उन लोगों के लिए जो वहां बैठे हैं उनके लिए खास तौर से एक फिल्म बनाऊंगा. आपको जो सही लगता है, जो आपको अपील करता है, आप वही फिल्मों को बनाने की कोशिश करेंगे. क्योंकि ऐसा नहीं है कि फिल्में एक रात में बन जाती हैं, साल लग जाते हैं कभी कभी, लिखने से लेकर प्री प्रोडक्शन, शूटिंग और उसके बाद प्रमोशन और उसकी रिलीज. कभी रिलीज के बाद भी काम होता है फिल्म में. तो किसी भी फिल्म को ऐसा वक्त देने के लिए, अगर आप बस डिजाइन पर ध्यान दे रहे हैं तो आपके पास वक्त नहीं रहेगा. आपको उस पर जी जान से विश्वास करना होगा. आप उसके पहले दर्शक होंगे और आपको उसमें मजा आना चाहिए. मैं जहां तक हो सके, ऐसा करने की कोशिश करता हूं.
डॉयचे वेलेः क्या आप जर्मनी के अलावा किसी और देश के साथ काम कर रहे हैं?
रितेश सिधवानीः स्क्रिप्ट पर निर्भर होता है. बहुत देश कुछ प्रोत्साहन भी देते हैं. लंदन में, ग्रीस में, सिंगापुर में या मेलिशिया में. तो जैसा कि आप पहले पूछ रहे थे, आर्ट और व्यावसायिक फिल्मों के बारे में, ऐसा कोई फार्मूला नहीं है, डर्टी पिक्चर जैसी फिल्म ने आकर सबको दिखा दिया कि यह भी चल सकता है. या जब जिंदगी ना मिलेगी दोबारा रिलीज हुई. लोगों को पहले लगा कि कुछ ही जगहों में सफल होगी, लेकिन यह मेनस्ट्रीम हो गई. हर तीन चार महीनों में एक फिल्म आकर इन सीमाओं को पार करती है. भारत में खास कर.
डॉयचे वेलेः हर इंडस्ट्री में कुछ देर बाद ट्रेंड चेंज होता है. जैसे बहुत ज्यादा प्रेम कहानियां बनती हैं या एक्शन फिल्में बनती हैं. तो बॉलिवुड में आजकल क्या ट्रेंड है.
फरहान अख्तरः यह कहना मुश्किल है क्योंकि अगर आप सिर्फ पिछले साल बनी फिल्में देखें, तो बहुत अलग अलग फिल्में बनी हैं. जैसे सिंघम, डर्टी पिक्चर, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, डेली बेली बनी है, रॉक्स्टार बनी है. यह बहुत अगर तरह की फिल्में हैं. इसमें कहना कि कौन सा ट्रेंड नजर आ रहा है, मैं कहूंगा वह यही है कि लोग वही बना रहे हैं जो उनका मन कर रहा है.
डॉयचे वेलेः क्या आप आगे और यूरोपीय फिल्म महोत्सवों पर भी ध्यान देंगे?
फरहान अख्तरः हम फिल्म बाहर भेजते हैं. जैसे जिंदगी ना मिलेगी दोबारा एशियन फिल्म अवार्ड्स में गई. फ्लोंरेस में भी उसे दर्शकों का पसंदीदा फिल्म चुना गया. जैसा कि रितेश ने कहा, आपकी फिल्म पर भी निर्भर है लेकिन आप चाहते हैं कि और लोग आपकी फिल्में देखें.
इंटरव्यूः मानसी गोपालकृष्णन, अदनान इसहाक (बर्लिन)
संपादनः ओ सिंह