खूब बिक रही है भारत में समलैंगिकों की पत्रिका
१९ जनवरी २०११चमकदार रंगीन मोमी कागज पर खुबसूरत छपाई वाली फन में बाहर और भीतर दोनों ओर आकर्षण है. अंतर्वस्त्रों में अंदर के पन्नों पर अलग अलग अदाओं में खड़े मॉडल हैं और ये सलाह भी कि साथी से मुलाकात के वक्त पहने क्या, सेक्स के बारे में समस्याओं को दूर करने के सुझाव हैं और साथ में कार के लेटेस्ट मॉडल और गजट भी.
दिल्ली में पत्रिका का जब पहला अंक आया तो मैगजीन स्टोर चलाने वाले रामनरेश उसे लोगों सामने रखने से थोड़ा हिचक रहे थे. उन्हें डर था कि पता नहीं लोग किस तरह से प्रतिक्रिया जताएंगे. हफ्ता बीतते बीतते उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी क्योंकि लोगों ने इस पत्रिका को हाथोंहाथ लिया. रामनरेश कहते हैं,"हमारे पास आने वाली प्रतियां तुरंत ही बिक जाती हैं, मुझे ज्यादा से ज्यादा पत्रिकाओं के लिए ऑर्डर देना पड़ रहा है क्योंकि बड़ी संख्या में लोग इन्हें खरीदने आ रहे हैं."
ज्यादातर भारतीयों के लिए समलैंगिकता हाल तक एक ऐसा मुद्दा थी जिस पर बात करना भी लोग पसंद नहीं करते. सार्वजनिक रूप से चर्चा पर तो एक तरह की पाबंदी ही थी. भारत में खेल, राजनीति या मनोरंजन की दुनिया में कोई ऐसी बड़ी हस्ती भी नहीं है जो सार्वजनिक रूप से समलैंगिक होने का दावा करता हो. पर अब मानसिकता बदल रही है. खासतौर से 2009 में समलैंगिक संबंधों को कानूनी रूप से मान्यता मिलने के बाद देश में समलैंगिक लोगों की स्थिति बदल गई है. पश्चिमी जीवनशैली और स्वभाव को अपनाने की कोशिश में लगे भारत के युवा अब इन संबंधों को भी खुलेआम स्वीकार करने लगे हैं.
फन की सफलता ने बॉम्बे दोस्त की नाकामी भुला दी है. बॉम्बे दोस्त नाम से पहली बार भारत में समलैंगिक पत्रिका शुरू की गई जो 12 साल किसी तरह घिसटने के बाद 1990 में बंद कर दी गई. हाल ही में इसे दोबारा शुरू किया गया है. समलैंगिकों की आजादी का असर बाजार पर भी दिख रहा है. वैलेंटाइन डे पर समलैंगिक साथियों के लिए भी कार्ड मिलने लगे हैं इसके अलावा समलैंगिक बेटे के ब्वॉयफ्रेंड का स्वागत करने वाली मां की कहानी दोस्ताना ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कारोबार किया. फिलहाल देश भर मे कम से कम आठ समलैंगिक पत्रिकाएं छप रही हैं इनमें कुछ सामान्य और कुछ ऑनलाइन पत्रिकाएं हैं. पिछले साल आफिया कुमार ने जिया नाम से एक ऑनलाइन समलैंगिक पत्रिका शुरू की. आफिया अपनी पत्रिका शुरू करने के बारे में कहती हैं, "मैं बातचीत का एक माध्यम चाहती थी, न कि विज्ञापन देना और लिपस्टिक बेचना, लोग मुझे लिखते हैं कि ईमेल के जरिए पत्रिका भेजो, इंटरनेट पर पहचान जाहिर होने के डर नहीं होता ऐसे मे लोग खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं और समुदाय का हिस्सा आसानी से बन जाते हैं."
आफिया की जिया में मॉ़डलों की नंगी तस्वीरें और बेडरूम की काल्पनिक बातों की बजाए कविताएं और समलैंगिक के लिए उपयुक्त पर्यटन के बारे में जानकारी होती है. पत्रिका के लिए काम करने वाले ज्यादातर लोग स्वयंसेवी हैं. आफिया नहीं चाहती कि उनकी पत्रिका में सेक्स की बातें हो क्योंकि उनके कई पाठक कम उम्र के इसके अलावा उनकी ये भी कोशिश है कि पत्रिका बच्चों के मां बाप भी पढ़ें.
पिछले साल अप्रैल में हुई समलैंगिक सम्मान पदयात्राएं कई बड़े शहरों के लिए खुशी का एक जलसा बन गई हैं लेकिन छोटे शहरों में लोग अभी इस तरह से सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. ऐसी जगहों पर समलैंगिकता को अभी भी बीमारी के रूप में ही देखा जाता है. पिछले साल तो अलीगढ़ में एक प्रोफेसर की जब समलैंगिक रिश्ते बनाते वक्त फिल्म बना ली गई तो उसने खुदकुशी कर ली.
मुंबई की बांद्रा में आजाद बाजार नाम से गे प्राइड स्टोर चलाने वाली सिमरन और सबीना भी मानती हैं कि लोगों के निजी दायरे को बचाए रखना जरूरी है. वो कहती हैं, " हमारे मन में ये एक दम साफ है कि इस जगह को हम एक पारिवारिक जगह बनाना चाहते हैं लोगो यहां आते वक्त सेक्स के बारे में न सोचें ये कोई सेक्स शॉप नहीं है बल्कि गे प्राइड स्टोर है."
फन पत्रिका में भी लोगों को समलैंगिता के लिए क्रांति करने पर उकसाने वाली कोई बात नहीं है लेकिन संपादक मानवेंद्र सिंह गोहिल को भरोसा है कि उनकी पत्रिका समलैंगिकों के लिए समानता की बात करती है. वो ये भी कहते हैं, "भारत में पत्रिकाओं में हमेशा लड़कियों का ही तस्वीरें बेची जाती हैं अब वक्त आ गया है कि लड़कों को भी उनकी खूबसूरती की कीमत मिले." गोहिल पश्चिमी भारत के एक शाही परिवार के वंशज हैं और समलैंगिक भी. बदलाव की बयार गोहिल को भी दिख रही है, "चीजें धीरे धीरे बदल रही हैं, 2006 में जब मैने खुद के बारे में लोगों को बताया तो मेरे परिवार ने सार्वजनिक रूप से मुझे खानदान से बाहर कर दिया, अब मैं देखता हूं कि मां बाप भी समलैंगिक सम्मान यात्राओं में हिस्सा ले रहे हैं."
रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन
संपादनः उज्ज्वल भट्टाचार्य