अमीर भारत का अशिष्ट चेहरा
५ दिसम्बर २०१२भारत का उच्च मध्यमवर्ग बेहतर व जवाबदेह तंत्र की मांग करता है. लेकिन जब बात घर में काम करने वाली बाई की आती है तो यही वर्ग खुद को मालिक और सामने वाले को नौकर समझता है. वो भूल जाता है कि घर में काम करना एक रोजगार है, कोई गुलामी नहीं.
दिल्ली के शिवाजी एनक्लेव में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं. महिलाएं अपनी अपनी बालकनी में खड़ी होकर गप्पें लड़ा रही हैं. उनके चेहरे पर एक तरह की बेफिक्री है. पहली नजर में यह बड़ा आदर्श समाज लगता है. लेकिन अंदर झांके तो पता चलेगा कि सीढ़ियों पर एक महिला इंतजार कर रही है. वह पसीने से तर बतर है. दरवाजा खोलने के साथ ही उसे हुक्म मिलने लगते हैं. बाहर चप्पल उतारकर वह घर में घुसती है और एक एक आदेश की तामील करने लगती है. झाड़ू पोंछा करती है, बर्तन मांजती है. इस दौरान अविश्वास से भरी आंखें उस पर नजर भी रखती हैं. कई बार उसे अपशब्द भी सुनने पड़ते हैं. सभ्यता और साक्षरता की डींग हांकने वाले भारतीय शहरों का यह अशिष्ट चेहरा है.
शोषित बच्चे
अप्रैल में दिल्ली के द्वारका इलाके से एक 13 साल की बच्ची को मुक्त कराया गया. उसे नौकरानी बनाया गया था. मालिक परिवार से साथ थाइलैंड घूमने गया और बच्ची को घर में कैद कर गया. पुलिस ने पाया कि मासूम बच्ची बीते कुछ दिनों से भूखी थी. उसके शरीर पर चोटों के निशान थे. जांच में पता चला कि बच्ची को एक प्लेसमेंट एजेंसी ने बेचा था.
अक्टूबर में राजधानी के पंजाबी बाग इलाके में एक गैर सरकारी संगठन ने 16 साल की एक लड़की को मुक्त कराया. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक बच्ची को एक डॉक्टर ने चार साल तक घर में बंद रखा गया. उसका नौकरानी तरह इस्तेमाल किया. मेडिकल जांच में पता चला कि असम की उस किशोरी से कई बार बलात्कार किया गया. गर्भ न ठहरे, इसके लिए डॉक्टर मालिक ने उसे इमरजेंसी गर्भनिरोधक गोलियां भी खिलाईं.
छत्तीसगढ़ से दिल्ली
तीन महीने पहले दिल्ली पुलिस ने थेरेसा केरकेता नाम की महिला को भी दासता के इस चंगुल से छुड़ाया. एक प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए उसे घरेलू बाई का काम मिला. छत्तीसगढ़ से दिल्ली आई 45 साल की केरकेता के मुताबिक, "उन्होंने मुझे कई जगहों पर भेजा. मैं उन इलाकों के नाम तक नहीं जानती. 15 दिन यहां, एक महीना वहां. प्लेसमेंट एजेंसी हमेशा बहाने बनाती रही और मुझे काम करवाती रही. उन्होंने मेरी पूरी तनख्वाह रख ली."
इस दौरान केरकेता को घर के भीतर बंद रखा जाता था. उसे पीटा भी गया. उसका काम तड़के शुरू होता और देर रात तक चलता. इस दौरान उसे कभी अपने घरवालों से संपर्क नहीं करने दिया गया. केरकेता को यह भी नहीं बताया गया कि दिल्ली आने के बाद उसके पति और पिता की मौत हो चुकी है. लंबे समय तक परिवार को जब केरकेता की कोई खोज खबर नहीं मिली तो एक रिश्तेदार ने एक धर्माथ संस्था से संपर्क किया. लंबी जांच के बाद पुलिस केरकेता का पता लगा पाई.
पैसा कमाती एजेंसियां
एक वक्त था जब दक्षिण एशिया से खाड़ी के देशों में जाने वाले लोग इस तरह की शिकायतें किया करते थे. अब ऐसी शिकायतें भारतीय शहरों से आ रही हैं. केरकेता की जैसी हालत हजारों महिलाओं और बच्चों की है. रोजगार की तलाश में यहां तक पहुंचे ऐसे ज्यादातर लोग शोषण का शिकार हो रहे हैं. मध्य और उच्च मध्यवर्ग के विस्तार ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है. गैर आधिकारिक अनुमान के मुताबिक भारत में नौ करोड़ घरेलू कामगार हैं. समाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक ज्यादातर मामलों इन कामगारों को पहले प्लेसमेंट एजेंसी का उत्पीड़न झेलना पड़ता है और फिर घर के मालिक का.
बचपन बचाओ आंदोलन के भुवन रिभू कहते हैं, "बाइयों की मांग में तेजी आई है क्योंकि ऐसे परिवारों को आय बढ़ी है जो लोगों को खाना बनाने, सफाई करने और बच्चों की देखभाल करने के लिए रख सकते हैं." भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1990 के दशक में मध्य में हुई. सुधारों के डेढ़ दशक बाद देश की तस्वीर काफी बदल चुकी है. 120 करोड़ की आबादी में अब 40 करोड़ लोग मध्यवर्गीय हैं. 2020 तक मध्यवर्ग की संख्या 54 करोड़ होने का अनुमान है.
यह भी सच है कि परिवार की आय बढ़ाने में महिलाओं का बड़ा योगदान है, वह नौकरी करने के लिए घरों से बाहर निकल रही हैं. ऐसे में घर संभालने का वक्त कम हो रहा है, लिहाजा काम करने वाली बाई की जरूरत बढ़ रही है.
कानून नहीं
लेकिन कानून और इंसानियत को ताक पर रख कर घर के लिए नौकर ढूंढना, यह दुर्भाग्य है. बच्चों को भी नहीं बख्शा जा रहा है. भारत सरकार के मुताबिक 2011-12 में 1,26,321 बच्चों को मुक्त कराया गया. ये सब घरों में बतौर नौकर काम कर रहे थे. खुद सरकार मानती है कि बच्चों को नौकर बनाने की दर में 27 फीसदी तेजी आई है.
घरों में कैद रह कर काम करने वाले इन लोगों की आवाज अक्सर पुलिस तक नहीं पहुंच पाती. सुनवाई और दोषियों को सजा मिलने की बात तो दूर की कौड़ी है. बंधुआ मजदूरी, यौन शोषण, बाल मजदूरी और गैरकानूनी बंधक बनाने मामलों में सिर्फ 20 फीसदी लोगों को सजा मिल पाती है. ऐसे बंधन से मुक्त होने के बाद कामगार अक्सर अपने घर लौट जाते हैं और फिर सुनवाई के लिए भी नहीं आते. उनकी मजबूरी भी है. अदालत में पेश होने के लिए बार बार यात्रा करना उनके लिए बहुत खर्चीली बात है. अगर उनके पास इतना ही पैसा होता तो वे मजदूरी करते ही क्यों.
केरकेता एक मिसाल बनकर उभरी हैं. वह घर नहीं गईं. एनजीओ की मदद से कानूनी लड़ाई लड़ रही केरकेता दिल्ली में झुग्गी में रह रही हैं. वह सुनवाई पूरी होने और मुआवजा लेने तक वहीं डटे रहना चाहती है. अपनी पीड़ा का जिक्र करते हुए वह कहती हैं, "एजेंसियां और उनके दलाल आपसे झूठ बोलते हैं. वे आपको ऐसे शहर में फंसा देते हैं जहां आपके पास न तो पैसे हैं और न ही आप किसी को जानते हैं."
गांव में ही रहो
कानूनी कार्रवाई पूरी होने के बाद केरकेता क्या करेंगी. इसका जवाब देते हुए वह कहती हैं, "मैं वापस जाऊंगी और सबको बताऊंगी कि गांव में ही रहो. अपने पति की मार खा लो, गरीबी में जियो. शहर के किसी रईस के हाथों शोषित होने से यह बेहतर है."
इसी साल भारतीय मूल के एक फिल्म निर्माता ने 'डेल्ही इन ए डे' जैसी फिल्म बनाई. फिल्म निर्माता प्रशांत नायर के मुताबिक दिल्ली में घरों में काम करने वाले लोगों की हालत देखकर वह भौंचक्के रह गए. नायर कहते हैं उन्हें ऐसा लगा जैसे कामगार को इंसान नहीं बल्कि दूसरा ही जीव माना जाता है.
सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि भारत में घरों में काम करने वाले लोगों के लिए कोई विशेष कानून बनाने की जरूरत है. बहुत साफ शब्दों में कानून बनाकर पुलिस हेल्पलाइन शुरू करने की भी जरूरत महसूस होती है. कामगारों के लिए न्यूनतम तनख्वाह तय होनी चाहिए. काम काज के घंटे, छुट्टियों को हिसाब और मेडिकल खर्चों पर पहले से ध्यान देने की जरूरत है.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी (रॉयटर्स)
संपादन: आभा मोंढे