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अरब विरोध के सामने लाचार यूरोप

२२ फ़रवरी २०११

अरब दुनिया में एक के बाद दूसरे देश में विरोध की आग फैलती जा रही है. यूरोप इन घटनाओं को हक्का बक्का देख रहा है. राइनर सोलिच की समीक्षा.

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जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केलतस्वीर: AP

दशकों तक जो बात असंभव लगती थी, अब अचानक सच्चाई बन गई है. अरब दुनिया में लोग अब अपने शासकों से भयभीत नहीं हैं. बर्बर हिंसा का सामना करते हुए वे अदम्य साहस के साथ अपने अधिकारों की खातिर लड़ रहे हैं, जैसा कि अब लीबिया में देखने को मिल रहा है, अपने खून से कीमत चुका रहे हैं. ट्यूनिशिया और मिस्र से शुरू हुई क्रांति की लहर तेजी के साथ दूसरे देशों में फैलती जा रही है. भविष्य की एक तस्वीर इस क्षेत्र में उभरती दिख रही है और यह चेतना बल पकड़ रही है कि अपनी ताकत के जरिए परिवर्तन संभव है.

उत्तर अफ्रीका और मध्यपूर्व में इतिहास का नया पन्ना लिखा जा रहा है - और बिल्कुल पड़ोस में यूरोप महज दर्शक है. इसमें कोई अचरज नहीं. लोकतंत्र और आजादी को पश्चिम अपने मूल्य समझता रहा है, दूसरे देशों में भी जिनकी तरफदारी करनी थी. लेकिन आर्थिक और राजनीतिक कारणों से अक्सर पश्चिमी देश निरंकुश शासकों के साथ सहयोग करते रहे हैं.

Tunesien Mohamed Ghannouchi und Catherine Ashton
ट्यूनिशियाई प्रधानमंत्री मोहम्मद गनौची के साथ यूरोपीय संघ की विदेश मामलों की प्रभारी कैथरीन ऐश्टनतस्वीर: AP

लीबियाई तानाशाह मुअम्मर एल गद्दाफी अपनी ही जनता पर सेना और पुलिस की गोलियां बरसा रहे हैं. और इसी सरकार की मदद से यूरोप में शरणार्थियों की बाढ़ रोकी जा रही है. वहां से तेल भेजा जाता है और यूरोप के नागरिकों की कारें चलती रहती हैं, जाड़े में उन्हें ठिठुरना नहीं पड़ता है.

अगर यूरोप के देश खुलकर गद्दाफी या दूसरे तानाशाहों का विरोध नहीं कर रहे हैं तो इसके दूसरे कारण भी हैं. उन्हें यह भी नहीं पता है कि कौन सी ताकतें सामने आएंगी. पश्चिम समर्थक लोकतांत्रिक ताकतें? या वही ताकतें, जो पैगंबर के कार्टून के बाद यूरोपीय वाणिज्य दूतावासों में आग लगा रही थीं? तस्वीर कतई साफ नहीं है.

नहीं, तस्वीर साफ नहीं है. अरब देशों के समाज की तरह विरोध आंदोलन में भी तरह तरह की ताकतें हैं. वे निरंकुशता के खिलाफ, लोकतंत्र की खातिर आवाज उठा रहे हैं. लेकिन उनमें धार्मिक और कबायली विवाद भी छिपे हुए हैं. उनमें उदारवादियों के अलावा वामपंथी, राष्ट्रवादी और इस्लामपंथी ताकतें शामिल हैं, कस्बों के नौजवान शामिल हैं, जिनका कोई स्पष्ट राजनीतिक एजेंडा नहीं है. यहां पश्चिम समर्थक या विरोधी का ठप्पा लगाना गलत है. इनके परिणामों का अंदाजा लगाना या उन्हें प्रभावित करना संभव नहीं है.

इसके बावजूद लोकतंत्र का समर्थन और तानाशाहों के खिलाफ स्पष्ट आवाज सही रास्ता है, लेकिन यूरोप को एक तंग रास्ते से गुजरना पड़ रहा है. सिर्फ तानाशाह ही नहीं, लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने वाले भी स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि उन्हें बाहरी हस्तक्षेप पसंद नहीं है. साझेदार के तौर पर समर्थन बेहतर होगा, खासकर उन देशों में, जहां से तानाशाह भगाए जा चुके हैं, समाज को एक नए रास्ते पर चलना है.

लेखक: राइनर सोलिच (उभ)

संपादक: ए कुमार

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