आंसुओं के महल में टूटे हिस्सों के किस्से
२ अक्टूबर २०११जिल्के श्मिटशेन पूर्वी जर्मनी के कम्यूनिस्ट दौर में पली बढ़ीं. उन्हें यान मोएलमान के साथ अपना रिश्ता याद आता है जो बहुत लुका छिपाकर रखा गया. मोएलमान बर्लिन के पश्चिमी हिस्से में रहते थे. जर्मनी की राजधानी बर्लिन के नए बने ट्रेनेनपालास्ट म्यूजियम में पेश किए गए एक विडियो में जिल्के याद करती हैं, "तब तो मिलना भी इतना खतरनाक था."
यान ने अपनी प्रेमिका के साथ रहने के लिए पूर्वी जर्मनी में रहने तक का फैसला कर लिया था. लेकिन अधिकारियों ने उन्हें इसकी इजाजत ही नहीं दी. 1989 में बर्लिन की दीवार गिरी, दो शहर एक हुए और आखिरकार वे दोनों मिल पाए.
किस्सों का म्यूजियम
दिल को छू लेने वाले ऐसे जाने कितने ही किस्से बर्लिन की दीवार के इधर या उधर बिखरे पड़े हैं. इनमें से बहुतों को जमा करके बर्लिन के इस नए म्यूजियम में रखा गया है. फ्रीडरिषश्ट्रासे स्टेशन के पास बने इस म्यूजियम में यह प्रदर्शनी सितंबर में खोली गई यानी 3 अक्तूबर को जर्मनी के एकीकरण की 21वीं सालगिरह से ठीक पहले.
इसका नाम है ट्रेनेनपालास्ट यानी आंसुओं का महल. विभाजित बर्लिन में यह जगह चेकपॉइंट हुआ करती थी. बेहद मुश्किल प्रक्रिया से गुजरने के बाद लोग इस रास्ते को एक तरफ से दूसरी तरफ जाने के लिए इस्तेमाल करते थे. और अक्सर यहां लोग अपनों को उस तरफ भेजने के बाद आंसुओं में डूबे देर तक खड़े रहते.
1990 में बर्लिन के एक हो जाने के बाद इस जगह को कॉन्सर्ट हॉल और नाइटक्लब के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा. लेकिन प्रदर्शनी की प्रवक्ता नीना शूमाखर बताती हैं कि कोशिश की जा रही है कि इस बिल्डिंग को जितना हो सके, इसकी असली सूरत में ही रखा जाए.
इसके मुख्य दरवाजे पर जर्मन में लिखा है आउसराइजे यानी प्रस्थान. लेकिन अंदर घुसते ही एक आधुनिक हॉल नजर आता है. इसमें अलमारियों में अटैचियां रखी हैं जो बर्लिन के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में लोगों के आने जाने का प्रतीक हैं.
हर आंसू एक किस्सा
पर सबसे अहम हैं वे कहानियां जो यहां संभालकर रखी गई हैं. जैसे जीगलिंडा फाइस्टकॉर्न की कहानी जिन्हें अपने रिश्तेदारों के पास स्वीडन जाने की इजाजत नहीं मिली थी. उन्हें बताया गया कि अधिकारी उस पर नजर रख रहे हैं. लेकिन फाइस्टकोर्न के लिए यह बात हजम करने लायक नहीं थी क्योंकि वह तब सिर्फ 18 साल की थीं और स्कूल में पढ़ती थीं. और आखिरकार वह भागकर पश्चिमी जर्मनी चली गईं. तब उनकी दादी ने सोचा था कि अब कभी अपनी प्यारी पोती को नहीं देख पाएंगी. फिर भी वह खुश थीं कि उनकी पोती को अच्छा भविष्य तो मिलेगा. दादी की दोनों बातें सही निकलीं.
कार्ल-हाइंत्स कारिष अपने माता पिता के साथ भागे थे. साथ में वह अपनी पसंदीदा किताब लेकर गए थे, एरिष काएस्टनेर्स की एमिल एंड द डिटेक्टिव्स. कारिष पूर्वी जर्मनी में नौजवानों की कम्यूनिस्ट संस्था के सदस्य थे. उन्हें सिखाया गया था कि भागने वाले फासिस्ट हैं.
कारिष के परिवार के लिए भागना आसान नहीं था. सार्वजनिक वाहनों की भी बार बार तलाशी होती थी. इसलिए उन्होंने अपने सामान को अलग अलग वाहनों में रखा. वे इतने डरे हुए थे कि उन्होंने ट्राम में बैठकर शहर के पांच चक्कर लगाए. उनकी पश्चिमी जर्मनी के स्टेशन पर उतरने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी. आखिरकार जब रात घिर आई, तो वे डरते डरते एक स्टेशन पर उतर गए.
एक दस्तावेज
प्रदर्शनी में आने वाले लोगों के लिए उस वक्त के पत्र, तस्वीरें, यात्रा दस्तावेज, छिपाकर लाई गईं कैसेट और पश्चिमी पत्रिकाएं रखी गई हैं जिन्हें सुरक्षा मंत्रालय ने जब्त किया था.
प्रदर्शनी देखने आईं मिसेज वोल्फे बताती हैं कि सीमा चौकी उन लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थीं. वोल्फे पश्चिमी जर्मनी में रहती थीं और अपने दोस्तों से मिलने पूर्वी जर्मनी जाया करती थीं.
ट्रेनेनपालास्ट की नीना शूमाखर के मुताबिक यह म्यूजियम औरों के मुकाबले ज्यादा असल तस्वीर पेश करता है क्योंकि जो हुआ वह यहीं हुआ. शूमाखकर कहती हैं, "जिन लोगों ने दीवार को असल में नहीं देखा उनके लिए जर्मन इतिहास को समझने का यह बेहतरीन जरिया है. वे जान सकते हैं कि विभाजन का बर्लिन पर क्या असर हुआ."
रिपोर्टः एजेंसियां/वी कुमार
संपादनः एन रंजन