ओलंपिक में आग उगलता ड्रैगन
३१ जुलाई २०१२सोवियत संघ के टूटने के बाद विश्व नए तरह के समीकरणों में बंधने लगा और उसका असर ओलंपिक के पदकों पर भी देखा जाने लगा. 2004 में एथेंस ओलंपिक में अमेरिका ने सबसे ज्यादा सोना, चांदी और कांसा जीता लेकिन पिछली बार अपने घर में हुए ओलंपिक में चीन ने सबको पछाड़ कर नई बादशाहत हासिल कर ली. जानकार इसे अमेरिका का घटते और चीन का बढ़ते प्रभाव का नतीजा भी मान रहे हैं.
कहा जाता है कि 21वीं सदी में कोई दो ध्रुव नहीं होंगे, बल्कि यह बहुध्रुवीय समाज होगा. ऐसे में ओलंपिक के पदक कैसे बंटेंगे. एक तरीका जी7 देशों और ब्रिक्स देशों की तुलना से हो सकती है. जी7 में दुनिया के सात सबसे रईस देश शामिल हैं. जबकि ब्रिक्स में भारत, चीन और रूस सहित पांच देश शामिल हैं. पिछले चार ओलंपिक खेलों में हर बार जी7 को बढ़त मिली है, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के अलावा जर्मनी, कनाडा, इटली और जापान शामिल हैं. लेकिन अब फासला घट रहा है.
किसे कितने मिले
अटलांटा 1996 में जी7 देशों ने 38 प्रतिशत गोल्ड मेडल जीते थे और ब्रिक्स देशों (भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस) ने सिर्फ 17 प्रतिशत. लेकिन 12 साल बाद 2008 में जी7 ने 32 फीसदी स्वर्ण पदक जीता, जबकि ब्रिक्स देशों ने 26 प्रतिशत. कामयाबी को नापने के कई तरीके हो सकते हैं. आसान तरीका सोने के तमगों की तुलना करना है. वैसे अगर स्वर्ण पदक को तीन, रजत को दो और कांस्य पदक को एक अंक देकर तुलना करना चाहें, तो वह भी हो सकता है.
शेफील्ड हलम यूनिवर्सिटी में खेल प्रबंधन विभाग के प्रोफेसर साइमन शिबली का कहना है, "मेडल स्कोर बताता है कि कुल मिला कर आपकी कामयाबी कैसी रही." उनका कहना है कि अगर खेलों की संख्या बढ़े, तो उसी अनुपात में पदकों की संख्या भी बढ़नी चाहिए. सही आकलन 1996 के बाद ही किया जा सकता है, जब रूस ने अपने दम पर ओलंपिक में हिस्सा लेना शुरू किया. इससे पहले 1992 में पूर्व सोवियत संघ के देशों ने संयुक्त रूप से हिस्सा लिया था.
अगर पहले ओलंपिक यानी 1896 से लेकर अब तक के ओलंपिक खेलों का जिक्र किया जाए, तो पदकों के मुताबिक इसे चार प्रमुख काल में बांटा जा सकता है.
20वीं सदी का पूर्वार्धः यह बात किसी से छिपी नहीं कि वह काल पश्चिमी देशों के वर्चस्व का था. वही देश पदकों की दौड़ में भी आगे थे. ब्रिक्स देशों में सिर्फ दक्षिण अफ्रीका और भारत ही उस समय ओलंपिक में खेल पाते थे.
दूसरे विश्व युद्ध के बादः इस युद्ध के बाद के तीन दशकों में सोवियत संघ का रुतबा बढ़ा और इसकी मदद से वह जी7 का मुकाबला कर पाया. चीन ने लंबे वक्त तक ओलंपिक का बहिष्कार किया और 1980 तक ब्रिक्स देशों के कुल पदकों में से 95 फीसदी सोवियत संघ की झोली में जाते रहे.
शीत युद्धः अमेरिका और सोवियत संघ ने एक दूसरे के ओलंपिक खेलों का बहिष्कार शुरू किया. इस दौरान तुलना कर पाना बहुत मुश्किल है लेकिन यह कहने की जरूरत नहीं कि यही दोनों देश पदकों के सिरमौर बने रहे. 1980 में मॉस्को ओलंपिक में सोवियत संघ ने कुल 39 प्रतिशत गोल्ड मेडल जीते, जबकि 1984 के लॉस एंजेलेस ओलंपिक में अमेरिका ने 37 प्रतिशत.
पिछले दो दशकः ये सीधे मुकाबले का दौर है. इस दौरान सभी देश हिस्सा ले रहे हैं और अपना दम खम लगा रहे हैं. ब्रिक्स और जी7 देशों के बीच सीधा मुकाबला माना जा सकता है. रूस और चीन ने खेलों को बहुत गंभीरता से लिया है और दोनों का प्रदर्शन लाजवाब रहा है.
चीन का महत्व
अगर ब्रिक्स में कोई देश सबसे महत्वपूर्ण बन कर उभरा है, तो वह चीन ही है. पिछले ओलंपिक में उसने रूस और अमेरिका को बहुत नीचे खिसका दिया. शिबली का कहना है कि मेजबान होने का फायदा तो चीन को जरूर मिला लेकिन उससे भी ज्यादा उसकी इच्छा शक्ति का फायदा मिला. चीन ने हाल के दिनों में खेलों पर जम कर निवेश किया है. शिबली का कहना है, "1988 में जब चीन पदक तालिका में 11वें नंबर पर आया, तो इसे राष्ट्रीय शर्म की तरह देखा गया. इसके बाद आठ अरब डॉलर खेलों पर निवेश किए गए और 20 साल बाद 2008 में चीन ने कुल 100 पदक जीते, जिनमें आधे से ज्यादा स्वर्ण रहे."
प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के अर्थशास्त्री जॉन हॉक्सवर्थ का कहना है कि बाजार को ओलंपिक खेलों से तुलना करना जरा मुश्किल है. ब्रिक्स देशों में तेजी से आर्थिक विकास हुआ है लेकिन खेलों में यह विकास सिर्फ चीन के रूप में देखा जा सकता है, "इसकी एक वजह यह है कि भारत का कोई रोल ही नहीं है. भारत के लोग क्रिकेट के दीवाने हैं और ओलंपिक का मतलब देश के लिए सिर्फ हॉकी होता है."
1952 के बाद बीजिंग पहला ओलंपिक था, जिसमें भारत को एक से ज्यादा पदक मिले. एक स्वर्ण सहित भारत ने तीन पदक जीते. हॉक्सवर्थ का कहना है कि दक्षिण अफ्रीका में फुटबॉल और क्रिकेट को लेकर दिलचस्पी है लेकिन ओलंपिक खेलों को लेकर नहीं, "इसलिए ओलंपिक पदक तालिका में इनका योगदान वैसा नहीं है."
ब्राजील ने पिछले चार ओलंपिक में अच्छे खासे पदक जीते हैं लेकिन फिर भी इसकी तुलना उसके आर्थिक विकास से नहीं किया जा सकता है. विश्व जीडीपी में उसका जो हिस्सा है, वह ओलंपिक खेलों की पदक तालिका में नजर नहीं आता. हॉक्सवर्थ का कहना है कि ओलंपिक में जी7 देशों का तेजी से पतन हुआ है लेकिन वैसा नहीं, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उनके देशों का हुआ है.
वैसे ओलंपिक कभी भी आर्थिक विकास का पैमाना नहीं हो सकता है. ऑस्ट्रेलिया ने 2000 के सिडनी ओलंपिक में चौथा स्थान हासिल कर लिया था लेकिन वह कभी भी वैश्विक स्तर पर एक सुपर पावर की तरह नहीं देखा गया. केन्या और इथियोपिया अंक तालिका में ऊपर बने रहते हैं लेकिन इन देशों का अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कोई योगदान नहीं. लेकिन ओलंपिक के दो हफ्तों में अलग अलग पहलुओं पर नजर रखने के लिए यह जरूरी है कि खेलों के साथ साथ देशों की राजनीति और अर्थव्यवस्था भी समझी जाए.
एजेए/ओएसजे (रॉयटर्स)