नब्बे दिन में नब्बे पैसे का हो गया रुपया
५ अक्टूबर २०११रूपये के लुढ़कने से आयात होने वाले तेल, खाद और खाने पीने के सामानों की कीमतों में भारी उछाल आया है जिसका असर करोड़ों गरीब लोगों के रोजमर्रा के जीवन पर पड़ा है. औसत दर्जे से ताल्लुक रखने वाले लोग भी कीमतों के बढ़ने से परेशान हैं. आर्थिक मामलों पर नजर रखने वाले बिस्वजीत धार कहते हैं, "अब आखिरी चीज जो भारत में आयात करने के लिए बची है वो महंगाई है. हम ऐसे दौर में जा रहे हैं जब महंगाई और बढ़ेगी."
आर्थिक साल की 30 सितंबर को खत्म हुई दूसरी तिमाही में रूपया 9 फीसदी घट कर एक डॉलर के मुकाबले 48.9 रुपये पर पहुंच गया है. निवेशक एक तरफ यूरोप के कर्ज संकट की आंधी से हलकान हो रहे हैं तो दूसरी तरफ अमेरिकी आर्थिक मंदी की स्थिति में अब तक सुधार न होने की वजह से. उभरते बाजारों से पैसा निकल कर अमेरिकी ट्रेजरी बिलों की तिजोरी में जा रहा है जो संकट की स्थिति में सुरक्षित पनाह माने जाते हैं.
तीन सालों में सबसे बड़ी गिरावट
सितंबर 2008 में लेमन ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद पहली बार रुपये की कीमत में इतनी गिरावट आई है. ये गिरावट भारत के लिए एक बुरे दौर में आई है. महंगाई पर काबू पाने के लिए पिछले 18 महीनों में एक दर्जन बार ब्याज की दरें बढ़ाई गई हैं. दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भारत का महंगाई दर इन सबके बावजूद 9.78 की ऊंची दर पर बना हुआ है. स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक की प्रमुख रणनीतिकार प्रियंका किशोर बताती हैं, "जब तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें कम नहीं होती रूपये में आई हर गिरावट महंगाई को बढ़ाएगी." भारत की सरकारी तेल कंपनियों ने रुपये की गिरती कीमत के प्रभाव को खत्म करने के लिए पेट्रोल की कीमत पांच फीसदी तक बढ़ा दी है.
सरकार ने पहले पिछले साल के 8.5 फीसदी के मुकाबले इस साल विकास की दर 9 फीसदी रहने की बात कही थी. अब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी कह रहे हैं कि उन्हें विकास दर आठ फीसदी रहने की उम्मीद है जो अर्थशास्त्रियों के अनुमान से ज्यादा है. अर्थशास्त्री विकास दर के सात फीसदी के आस पास रहने की उम्मीद जता रहे हैं.
भ्रष्टाचार से भागे विदेशी निवेशक
रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव का कहना है कि विकास धीमा होने के बावजूद मौद्रिक नीतियों में सख्ती के लिए दबाव है जिससे कि महंगाई को काबू में लाया जा सके. रिजर्व बैंक ने रुपये की मदद के लिए कई तरह से कोशिश की है. इसके लिए विदेशी मुद्रा भंडार को भी रोक कर रखा गया है. अंतरराष्ट्रीय वजहों के अलावा कुछ देसी कारण भी है जिनकी वजह से अंतरराष्ट्रीय निवेशक भारतीय बाजार में पैसा लगाने से डर रहे हैं और उनमें सबसे ऊपर है भ्रष्टाचार. राजनीतिक भ्रष्टाचार ने न सिर्फ कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की आर्थिक सुधार की कोशिशों को चोट पहुंचाई है बल्कि अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का उत्साह भी तोड़ दिया है. इस साल अब तक विदेशी निवेश के रूप में केवल 5 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम आई है जो 2010 में इसी अवधि में आई 22 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम के चौथाई से भी कम है. शेयर बाजार की खस्ता हालत ने इस मुसीबत को और बढ़ाया है. 2011 में शेयर बाजार तकरीबन 20 फीसदी नीचे चला गया है ऐसे में विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयरों को बेच कर रुपये की दशा और बिगाड़ी है.
अगस्त महीने में विदेशियों ने 2.1 अरब डॉलर की रकम शेयर बाजार से निकाल ली जो अक्टूबर 2008 के बाद बाजार से निकाली गई अब तक की सबसे बड़ी रकम है. रुपये की कीमत में आई गिरावट का फायदा अगर किसी को हुआ है तो वो आईटी उद्योग है जो अपना 2 तिहाई कारोबार अमेरिकी डॉलर में करती है. आईटी उद्योग की कमाई वापस रुपये में तब्दील होकर बड़ी रकम बन रही है. एचसीएल टेक्नोलॉजी के मुख्य वित्तीय अधिकारी अनिल चानना बताते हैं, "रूपये की कीमत घटने का आईटी उद्योग पर सकारात्मक असर हुआ है." हालांकि उन कंपनियों को नुकसान हो रहा है जिन्होंने विदेशों में कम ब्याज की रकम देख कर डॉलर में कर्ज ले रखा है. रूपये की कीमत घटने से उनके लोन की कीमत अचानक से बढ़ गई है.
प्रमुख एशियाई मुद्राओं के बीच रुपये का प्रदर्शन इस साल सबसे बुरा रहा है और जानकार बता रहे हैं कि यह अभी और नीचे जाएगा. स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक ने तो आशंका जताई है कि इस साल के अंत तक एक डॉलर में 51 रुपये मिलने की नौबत आ जाएगी.
रिपोर्टः एएफपी/एन रंजन
संपादनः महेश झा