पंक इस्लाम और मार्क्सवाद से उकसाती फिल्में
२४ फ़रवरी २०१२अजीज कहते हैं कि उनके लिए उनकी फिल्मों में गरीब लोगों के संघर्ष को दिखाना जरूरी है. डॉयचे वेले से खास बातचीत में 22 साल के अजीज ने बताया कि डॉक्यूमेंटरी फिल्में "एक ऐसा सच्चा जरिया है जिससे आप जिंदगी को परख सकते हैं और राजनीतिक और सामाजिक मामलों को टटोल सकते हैं." बर्लिन टैलेंट कैंपस में आए अजीज ने पाकिस्तानी शहर फैसलाबाद में मजदूरों के आंदोलन पर अपनी डॉक्यूमेंटरी बनाई है. "राइज ऑफ द ऑप्रेस्ड" (पीड़ितों की जागृति) नाम के फिल्म में अजीज ने कपड़ा मिलों में काम कर रहे मजदूरों की कहानी पेश की है. कहते हैं, "लोग यहां पांच छह साल की उम्र से काम करना शुरू करते हैं और जिंदगी भर वहीं काम करते हैं. एक दिन में उनकी कमाई एक डॉलर होती है. फैक्टरियों में कपास की धूल भरी रहती है और उन्हें फेफड़े की बीमारी हो जाती है."
'बदल रहा है पाकिस्तान'
अपनी फिल्म में अजीज ने मजदूरों की मुश्किल जिंदगी ही नहीं, बल्कि उनके संघर्ष को भी दर्शाने की कोशिश की है. पाकिस्तान के मजदूर शिक्षा संगठन और लेबर कौमी मूवमेंट लगातार इन कर्मचारियों के लिए काम कर रहे हैं. अजीज कहते हैं, "मैंने उनकी जिंदगियों को पेश करना चाहा है लेकिन फिल्म एक सकारात्मक तरीके से खत्म होती है. मजदूर एक हो रहे हैं. पाकिस्तान बदल रहा है." अजीज के मुताबिक मार्क्सवादी सोच से प्रेरित वामपंथी आंदोलनों ने इस बदलाव को लाने में बड़ा योगदान दिया है. खासकर इसलिए क्योंकि अब मजदूरों के नेता उनमें से ही निकलते हैं और वे उच्च वर्गों पर अपने नेताओं के लिए निर्भर नहीं है.
अजीज की दूसरी फिल्म हश्तनगर पर है. पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर खैबर पखतूनख्वा प्रांत के हश्तनगर शहर में स्थानीय किसानों ने जमीनदारों के खिलाफ हथियार उठा लिया था. अजीज ने इनकी कहानी अपने कैमरे में कैद की है. कहते हैं, "इस इलाके में तालिबान के विरोध के बावजूद लोग शांति से रहते हैं. फिल्म में एक महिला आंदोलनकारी की कहानी बताई गई है. इस महिला के साथ नुक्कड़ नाटक कंपनी के लोग और आसपास रह रहे किसान मिलकर जमीनदारों के खिलाफ अपनी आवाज और अपने हथियार उठाते हैं."
कट्टरपंथियों का क्रोध
हालांकि अजीज के क्रांतिकारी विचारों ने कट्टरपंथी संगठनों को उकसाया है. खासकर उनकी फिल्म "तख्वाकोरः द बर्थ ऑफ पंक इस्लाम" ने रूढ़िवादी मुस्लिम नेताओं को अजीज के खिलाफ कर दिया है. "तख्वाकोर" अमेरिकी लेखक माइकल मोहम्मद नाइट की इसी नाम की किताब पर आधारित है. किताब में पंक्स के बारे में लिखा गया है, जो सड़कों पर रहते हैं, उनके शरीर में टैटू हैं, वे गिटार बजाते हैं, लेकिन इस्लाम में भी विश्वास करते हैं और वक्त पर नमाज पढ़ते हैं. अजीज के मुताबिक सितंबर 2001 में न्यू यॉर्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अल कायदा के हमलों के बाद इस तरह की फिल्मों का महत्व और बढ़ गया है. खासकर इसलिए कि अमेरिका में रह रहे दक्षिण एशियाई युवा अमेरिकी हैं, लेकिन उनकी सांस्कृतिक जड़ें दक्षिण एशिया में हैं. अजीज का कहना है कि यह पहचान केवल मुसलमान होने की हैसियत से बनी पहचान नहीं है. दक्षिण एशिया में कई ऐसे लोग हैं जो मुसलमान नहीं हैं, लेकिन इस्लामी संस्कृति, खान पान और रहन सहन उनकी पहचान का हिस्सा बन गया है.
लेकिन पंक इस्लाम की बात ने कराची के जामिया बिनोरिया मदरसे के रूढ़िवादी शिक्षकों को नाराज कर दिया है. अजीज बताते हैं कि उन्होंने अजीज की खूब खिल्ली उड़ाई और अखबारों में उनका अपमान किया. "वे मुझे मलून कहने लगे. इसका मतलब एक ऐसा व्यक्ति है जिसे कानूनी तौर पर मारा जा सकता है."
अजीज को देखकर लगता है कि इन धमकियों का असर उनपर कम ही पड़ा है. लेकिन अपनी अगली डॉक्यूमेंटरी के लिए उन्होंने एक कम भड़काऊ मुद्दा चुना है. वे पाकिस्तान के हैदराबाद में चूड़ियां बनाने वाली महिलाओं पर काम करना चाहते हैं. कहते हैं कि हैदराबाद से दुनिया भर में चूड़ियां निर्यात होती हैं. "हजारों महिलाएं यहां काम करती हैं, चूड़ियां बनाती हैं, लेकिन इन्हें खरीदने के लिए खुद उनके पास पैसे नहीं होते हैं."
रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन
संपादनः महेश झा