ग्लोबल वार्मिंग पर यूएन वार्ता शुरू
१७ मई २०१२संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कंवेसन ऑन क्लाइमेट चेंज यूएनएफसीसीसी पर दस्तखत करने वाले 195 देशों ने बॉन में इस बात पर बहस शुरू की है कि पिछले साल दिसम्बर में डरबन सम्मेलन में तय लक्ष्य पाने के लिए वे किस तरह काम करेंगे. उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने वाली दक्षिण अफ्रीका की माइते एनकोआना मशाबाने ने सदस्य देशों से वार्ता के पुराने और नकारा तरीकों को छोड़ने की अपील की. उन्होंने समुद्रों के बढ़ते जलस्तर की वजह से डूबने का संकट झेल रहे छोटे देशों का जिक्र करते हुए कहा, "समय कम है और हमें अपने कुछ भाईयों , खासकर छोटे द्वीपों वाले देशों की अपील को गंभीरता से लेना है."
जर्मनी की पुरानी राजधानी बॉन में चल रहा सम्मेलन 25 मई तक चलेगा. यदि बातचीत सही रास्ते पर रहती है और समझौता हो जाता है तो 2015 तक नई संधि पूरी हो जाएगी और उसे 2020 से लागू कर दिया जाएगा. इसमें गरीबी और अमीर देशों को ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए और जहरीली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए एक ही कानूनी ढांचे में रखा जाएगा. इस समय संयुक्त राष्ट्र के तहत विकसित और विकासशील देशों के लिए पर्यावरण सुरक्षा संबंधी अलग अलग कानूनी नियम हैं.
आलोचकों का कहना है कि ये नियम अब समय के अनुसार नहीं है. ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादातर ऐतिहासिक जिम्मेदारी अमीर देशों की है, लेकिन उनका कहना है कि भविष्य में समस्या को सुलझाने का बोझ उनपर डालना अनुचित होगा. इस बीच सबसे ज्यादा जहरीली गैसों का उत्सर्जन करने वालों की सूची में चीन, भारत और ब्राजील जैसे देश शामिल होते जा रहे हैं जो अपनी आबादी को गरीबी से बाहर निकालने के लिए कोयला, तेल और गैस का व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं. हालांकि अभी भी प्रति व्यक्ति औसत खपत पश्चिमी देशों से कम है.
समुद्र में बसे छोटे देशों और अफ्रीकी देशों ने महात्वाकांक्षा की खाई पर चेतावनी देते हुए कहा है कि गैसों के उत्सर्जन में कटौती के वायदों और ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए उसकी जरूरत के बीच बड़ी खाई है. वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा, जबकि यूएनएफसीसीसी ने 2011 में 2 डिग्री को सुरक्षित अधिकतम वृद्धि बताया है.
अब तक 2015 का कनवास खाली है. यूएनएफसीसीसी ने सिर्फ इतना तय किया है कि उसे साझा लेकिन अलग अलग जिम्मेदारी तय करनी है. इसका मतलब है कि गरीब और अमीर अर्थव्यवस्थाओं पर अलग अलग बोझ डाला जाएगा. 2015 तक जिन मुद्दों पर फैसला लिया जाना है, वह यह है कि कौन देश कितनी कटौती करेगा, संधि को लागू करने की संरचना क्या होगी, उसका कानूनी दर्जा क्या होगा.
विकासशील देश विकसित औद्योगिक देशों से सद्भावना दिखाने की मांग कर रहे हैं. वे यूरोपीय संघ से क्योटो संधि के वायदों को फिर से दोहराने की अपील कर रहे हैं. वह अकेली संधि है जिसमें ग्रीनहाउस गैसों में कटौती तय की गई थी. इसके विपरीत क्योटो को पास करने वाला अमेरिका उभरते देशों से कटौती के अपने वायदों को बढ़ाने की मांग कर रहा है. आने वाले विवादों का संकेत देते हुए ग्रीन क्लाइमेट फंड की पहली बैठक स्थगित कर दी गई है. इसका गठन गरीब देशों की मदद के लिए 10 अरब डॉलर जमा करना है.
एमजे/आईबी (एएफपी)